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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
परिणामस्वरूप एक ओर निर्धनों में धनिकों के प्रति द्वेष या घृणा के भाव का जन्म होता है, तो दूसरी ओर सम्पत्तिशालियों में स्पर्धा की भावना जन्म लेती है। कालान्तर में यही स्पर्धा ईर्ष्या में बदल जाती है। फलतः सामाजिक जीवन में ईर्ष्या और विद्वेष के तत्त्व हावी हो जाते हैं। उनके परिणामस्वरूप समाज में जहाँ एक ओर छीना-झपटी या शोषण की प्रवृत्ति का विकास होता है, वहीं दूसरी ओर एक दूसरे के विकास में अवरोध डालने के प्रयत्न भी होते हैं।
इसी प्रकार सामाजिक एवं राष्ट्रीय हितों में भी संघर्ष प्रारम्भ हो जाते हैं। सम्पत्तिशाली समाज कमजोर वर्ग पर तथा सम्पत्तिशाली राष्ट्र निर्धन राष्ट्र पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। इस प्रकार संग्रहवृत्ति के परिणामस्वरूप वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति भंग होती है। इस स्थिति में सामाजिक समत्व की स्थापना सम्भव नहीं होती। अतः समत्वयोग की साधना के लिये व्यक्ति को कहीं न कहीं अपनी संग्रहवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा। समत्वयोग की साधना वही व्यक्ति कर सकता है, जो अपनी संग्रहवृत्ति या लोभ की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाता। यही कारण है कि जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना के लिये परिग्रह परिमाण या अपरिग्रह महाव्रत की साधना को आवश्यक माना गया है। जैनदर्शन का कहना है कि हमें सर्वप्रथम अपनी इच्छाओं को मर्यादित करना और परिग्रह का परिसीमन करना होगा।
आज व्यक्ति आवश्यकता और इच्छा के अन्तर को नहीं समझ पा रहा है। आज विश्व में आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों का अभाव नहीं है। अभी विश्व में इतने संसाधन हैं कि वे मानव समाज की जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें।
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार दुःखों का मूल कारण तृष्णा है। कहा गया है कि जिसकी तृष्णा समाप्त नहीं होती, उसका मोह भी समाप्त नहीं होता एवं उसके दुःख भी समाप्त नहीं होते।' आसक्ति का दूसरा भाग लोभ है और लोभ समग्र सद्गुणों का विनाशक है। जैन विचारणा के अनुसार तृष्णा एक ऐसी खाई है,
५१ 'दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तहा।
तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाइं ।। ८ ।।'-उत्तराध्ययनसूत्र ३२ । ५२ दशवैकालिकसूत्र ८/३८ ।
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