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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
जो कुछ हमारे पास है, उसका समविभाजन आवश्यक है। जैनदर्शन में आर्थिक विषमता के निराकरण के लिये समवितरण को भी प्रतिपादित किया है। वर्तमान युग में समाज के आर्थिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार की जो बुराईयाँ पनप रही हैं उनके मूल में या तो व्यक्ति की संग्रह इच्छा है या भोगेच्छा। भ्रष्टाचार केवल अभावजनित बीमारी नहीं है, वरन् वह एक मानसिक बीमारी है, जिसके मूल में संग्रहेच्छा एवं भोगेच्छा के कीटाणु हैं। यह बीमारी आवश्यकताओं के कारण नहीं, वरन तृष्णा से उत्पन्न होती है। आवश्यकताओं की पूर्ति पदार्थों को उपलब्ध करके ही की जा सकती है। उनकी एक सीमा होती है। लेकिन तृष्णा का निराकरण पदार्थों के द्वारा सम्भव नही है; क्योंकि उसकी कोई सीमा नहीं है। तृष्णाजनित विकृतियाँ केवल अनासक्ति से ही दूर हो सकती हैं। वर्तमान युग की प्रमुख कठिनाई यह नहीं है कि हमारे पास साधनों का अभाव है। कठिनाई यही है कि आज का मानव तृष्णा से इतना अधिक ग्रसित है कि वह एक अच्छा सुखद एवं शान्तिपूर्ण जीवन जी नहीं सकता है।
समत्वयोग की साधना के साथ वैयक्तिक, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन में सुख और शान्ति की नितान्त आवश्यकता है। क्योंकि जब तक परिवार एवं समाज अर्थात व्यक्ति के बाह्य परिवेश में शान्ति नहीं होगी, तब तक. व्यक्ति को चैतसिक शान्ति भी उपलब्ध नहीं होगी; क्योंकि परिवेश की घटनाएँ उसके चित्त को उद्वेलित करती रहेंगी। अतः समत्वयोग की साधना के लिये परिवेश, परिवार या समाज में शान्ति की स्थापना आवश्यक है। किन्तु आज व्यक्ति के जीवन में इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और तृष्णाएँ इतनी बढ़ गई हैं कि उसके कारण व्यक्ति के जीवन की शान्ति तो भंग हो रही है, साथ ही परिवार एवं समाज में भी तनाव उत्पन्न हो रहे हैं। इसका मूल कारण तृष्णा है। वस्तुतः तृष्णा का ही दूसरा नाम लोभ है और लोभ से संग्रहवृत्ति का उदय होता है। दशवैकालिकसूत्र में लोभ समस्त सद्गुणों का विनाशक माना गया है। जैन विचारधारा के अनुसार तृष्णा एक ऐसी दुष्पूर खाई है, जिसका कभी अन्त नहीं आता; क्योंकि धन चाहे कितना भी हो
४६ 'कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयणासणो ।
माया मित्ताणि णासेइं, लोभो सव्वविणासणो ।। ३८ ।।'
-दशवैकालिकसूत्र ८ ।
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