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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
(अर्थशास्त्र) का उल्लेख है। उस समय अर्थशास्त्र विषयक ग्रन्थ लिखे जाते थे।' जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति से यह सूचित होता है कि भरत का सेनापति सुषेण अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र में चतुर था।२ ___ आदिपुराण में कहा गया है कि भगवान ऋषभदेव ने अपने पुत्र भरत-चक्रवर्ती के लिये अर्थशास्त्र का निर्माण किया था।३ नन्दीसूत्र में भी कहा गया है कि विनय से प्राप्त बुद्धि से सम्पन्न मनुष्य अर्थशास्त्र तथा अन्य लौकिक शास्त्रों में दक्ष हो जाते हैं।
अर्थ के उपार्जन के मुख्य दो कारण होते हैं - इच्छा और आवश्यकता। जैनदर्शन में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उपार्जित किये जाने वाले अर्थ का निषेध नहीं किया गया है। किन्तु संग्रहबुद्धि से धन के उपार्जन को अनुचित माना गया है। क्योंकि संग्रहबुद्धि से धन का उपार्जन आर्थिक विषमताओं को जन्म देता है।
आर्थिक वैषम्य का तात्पर्य व्यक्ति के द्वारा भौतिक पदार्थों की उपलब्धि से उत्पन्न विषमता है। इसका मूल कारण व्यक्ति की संग्रहवृत्ति है। चेतना जब भौतिक जगत से सम्बन्धित होती है, तो उसे अनेक वस्तुएँ अपने जीवन के लिये आवश्यक प्रतीत होती हैं। यही आवश्यकता जब आसक्ति में बदल जाती है, तो संग्रह की लालसा बढ़ जाती है। इसी से सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता का उद्भव होता है। एक ओर संग्रह बढ़ता है, तो दूसरी
ओर गरीबी बढ़ती है। परिणामस्वरूप आर्थिक विषमता बढ़ती जाती है। आर्थिक विषमता आज के युग की ज्वलन्त समस्या है। इस समस्या का मूल कारण मानव की संग्रह या संचय की प्रवृत्ति है। अतः आर्थिक वैषम्य का निराकरण असंग्रह की वृत्ति से ही सम्भव है। जैनदर्शन अपरिग्रह के सिद्धान्त के द्वारा इस आर्थिक वैषम्य का निराकरण करने का प्रयास करता है। उपाध्याय अमरमुनि ने कहा है कि “गरीबी स्वयं कोई समस्या नहीं, किन्तु अमीरी ने उसे समस्या बना दिया है। गड्ढा स्वयं में कोई चीज नहीं, किन्तु पहाड़ों
प्रश्नव्याकरणसूत्र १/५ । जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति ३/७७ । आदिपुराण १६/११६ । नन्दीसूत्र ३८/६ ।
-अंगसुत्ताणि (लाडनूं) खण्ड २ पृ. ३८०) ।
-उवंगसुत्ताणि (लाडनूं) खण्ड ४२६ । -उद्धृत 'प्राचीन जैन साहित्य में आर्थिक जीवन' पृ. ६ ।
-नवसुत्ताणि (लाडनू) पृ. २५६ ।
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