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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
अहिंसा, अनाग्रह और अनासक्ति के माध्यम से पारिवारिक और सामाजिक जीवन में शान्ति की स्थापना की जा सकती है।
४.७ आर्थिक वैषम्य के कारण और अपरिग्रह द्वारा
उनका निराकरण मनुष्य का जीवन बहुआयामी है। उसमें आर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक आदि विविध पक्ष हैं। भारतीय दर्शनों में इन विविध पक्षों से सम्बन्धित चार पुरुषार्थ माने गये हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । पुरुषार्थ शब्द के निम्न दो अर्थ प्राप्त होते हैं :
१. पुरुष का प्रयोजन; और २. पुरुष के लिये करणीय कार्य। १. धर्म : जिससे समत्व या समता की साधना हो, उस समत्व
की साधना से 'स्व' और 'पर' कल्याण होता हो तथा व्यक्ति समतामय आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर होता
हो, वह धर्म पुरुषार्थ है। २. अर्थ : मानव को जीवन यात्रा के निर्वाह हेतु खाने के लिये भोजन, पहनने को वस्त्र एवं रहने के लिये आवास
आदि की आवश्यकता होती है। अतः जीवन की इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु साधन जुटाना अर्थ पुरुषार्थ
है, किन्तु जरूरत से ज्यादा इकट्ठा करना संग्रहवृत्ति है। ३. काम : जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जुटाये गये
साधनों का उपभोग करना काम पुरुषार्थ है। दूसरे शब्दों में ऐन्द्रिक विषयों की पूर्ति हेतु किया जाने वाला पुरुषार्थ काम पुरुषार्थ है। जहाँ अर्थ पुरुषार्थ में दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों की उपलब्धि प्रमुख रहती है, वहीं काम पुरुषार्थ के अन्तर्गत् मन एवं इन्द्रियों की मांग की
पूर्ति के प्रयास की प्रमुखता रहती है। ४. मोक्ष : दुःखों के कारणों को जानकर उनके निराकरण हेतु
किया गया पुरुषार्थ मोक्ष पुरुषार्थ है। क्रोध, मान, माया,
३८ योगशास्त्र १/१५ ।
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