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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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सास यह अपेक्षा रखती है कि बहू ऐसा जीवन जिये, जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में जिया था। जबकि बहू अपने युग के अनुरूप और अपने मातृपक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है। मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह भी होती है कि वह उतना स्वतन्त्र जीवन जिये, जैसा वह अपने माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत श्वसुर पक्ष एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद के कारण बनते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन सब विवादों के मूल में कहीं वैचारिक मतभेदों की प्रधानता रही हुई है। अनेकान्तवाद का सिद्धान्त हमें यही बताता है कि हमें दूसरों के सम्बन्ध में कोई निर्णय लेने से पूर्व स्वयं अपने को उस स्थिति में खड़ा करके सोचना चाहिये।" यदि व्यक्ति दूसरे की स्थिति को समझे बिना अपने विचारों और भावनाओं को दूसरे पर आरोपित करता है, तो उससे संघर्ष का जन्म होता है और वह संघर्ष हमारी मानसिक शान्ति या समत्व को भंग करता है। अतः समत्वयोग की साधना का मुख्य लक्ष्य दूसरों की भावना और विचारों को आदर देकर उनके प्रति सहिष्णु द ष्टिकोण अपनाना है। इसके लिये वैचारिक आग्रहों का परित्याग
आवश्यक होता है। अनेकान्तवाद का जीवन दर्शन हमें यही शिक्षा देता है कि हम आग्रहों से ऊपर उठें; दूसरे की परिस्थितियों को समझें और उनको आदर दें। तभी पारिवारिक और सामाजिक संघर्षों का उपशमन सम्भव हो सकता है। यद्यपि इस वैचारिक अनाग्रह के साथ-साथ पारिवारिक और सामाजिक जीवन में संघर्षों को समाप्त करने के लिये व्यक्ति को त्यागमूलक जीवनदृष्टि अपनानी होगी। जब तक जीवनदृष्टि भोगमूलक और स्वार्थपरक होती है, तब तक परिवार और समाज में संघर्ष बढ़ते हैं। परिवार
और समाज का प्रत्येक सदस्य दूसरों के विचारों और भावनाओं को आदर दे; उनके हितों का ध्यान रखे तथा आवश्यक होने पर अपने हितों का त्याग करके उनके हितों का रक्षण करे। जब इस प्रकार की जीवनदृष्टि का विकास होगा, तो पारिवारिक, सामाजिक जीवन से संघर्ष समाप्त होंगे और समत्व की स्थापना होगी। समत्वयोग की साधना का मूलभूत प्रयोजन यही है कि पारिवारिक
और सामाजिक जीवन से संघर्ष समाप्त हो और सभी मिलजुल कर पारिवारिक एवं सामाजिक कल्याण के लिये तत्पर बनें। इस प्रकार
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