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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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लोभ, इच्छा, आकांक्षा, राग-द्वेष आदि से विरक्त होकर
ऊपर उठने की भावना मोक्ष है। जैनदर्शन के अनुसार आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य जीवन में प्रयोजनभूत पुरुषार्थ तो दो ही हैं - धर्म एवं मोक्ष। इनमें मोक्ष साध्य है और धर्म साधन है। व्यवहारिक या लौकिक दृष्टि से मनुष्य जीवन के दो पुरुषार्थ हैं - अर्थ और काम। इनमें भी अर्थ तो साधन पुरुषार्थ है और काम ऐन्द्रिय जीवन के विषयों की सन्तुष्टिरूप साध्य पुरुषार्थ है। जब अर्थ पुरुषार्थ के साथ संग्रहवृत्ति का विकास होता है, तो आर्थिक वैषम्य का जन्म होता है। इस आर्थिक वैषम्य का निराकरण अपरिग्रह की साधना से ही सम्भव है। परिग्रह का विसर्जन ही जीवन में समत्व का सृजन कर सकता है। जैन धर्म में अर्थ को न तो अति महत्त्व दिया गया है और न उसकी पूर्णतः उपेक्षा की गई है। एक ओर उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि धन से मोक्ष नहीं मिलता है।३६ परन्तु दूसरी और जैन धर्म में श्रमण धर्म के साथ-साथ जो श्रावक धर्म की भी व्यवस्था है, उसके लिये तो अर्थ पुरुषार्थ आवश्यक है। जैन विचारकों का मानना है कि आर्थिक वैषम्य का कारण धन का अर्जन नहीं है, अपितु धन का संग्रह है। विषमताएँ सर्जन से नहीं संग्रह से उत्पन्न होती हैं।
पारिवारिक, सामाजिक राष्ट्रीय शान्ति और सद्भावना के लिए समत्वयोग की आवश्यकता है। आर्थिक समानता के लिए भी इसकी आवश्यकता है।
जैन धर्म में अपरिग्रहवाद के साथ-साथ परिग्रह परिमाण का सिद्धान्त भी प्रस्तुत किया गया है। इससे यह प्रतिफलित होता है कि सामाजिक जीवन में धन के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। जैन धर्म में आध्यात्मिक चर्चा के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में अर्थ के विषय में भी कुछ उल्लेख उपलब्ध होते हैं। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि श्रेणिक का पुत्र अभयकुमार अर्थशास्त्र का ज्ञाता था।° प्रश्नव्याकरणसूत्र में 'अत्थसत्थ'
३६ उत्तराध्ययनसूत्र ४/५ । ४० ज्ञाताधर्मकथा १/१६ ।
-अंगसुत्ताणि (लाडनूं) खण्ड ३ पृ. ४ ।
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