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अध्याय ४
समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
४. १ समत्व की वैयक्तिक साधना
समत्व की साधना दो स्तरों पर सम्भव है। (१) वैयक्तिक; और (२) सामाजिक । समत्व की वैयक्तिक साधना का तात्पर्य चित्तवृत्ति का समत्व है, मन का राग-द्वेष और वासनाजन्य आवेगों से रहित होना समत्वयोग की वैयक्तिक साधना है । इसका मुख्य लक्ष्य चित्तवृत्ति का समत्व है । इसके द्वारा व्यक्ति अपनी आत्मशान्ति को प्राप्त करता है और तनावों से मुक्त बनता है । उसका जीवन अनासक्त होता है । वह समाज में रहकर अकेला और देह में देहातीत होकर रहता है । पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों में अनासक्त होता है । समत्वयोग की वैयक्तिक साधना का तात्पर्य है व्यक्ति अपने राग-द्वेष और कषायों के आवेगों को कम करे या समाप्त करे; उनसे ऊपर आने का प्रयत्न करे । वह समत्वयोग की वैयक्तिक साधना समाज निरपेक्ष होकर भी कर सकता है या भीड़ में रहकर भी अकेला जीने का अभ्यास कर सकता है । किन्तु व्यक्ति अपने आप में व्यक्ति होने के साथ-साथ सामाजिक भी है I
वैयक्तिक साधना और सामाजिक साधना दोनों अलग-अलग हैं । क्योंकि वैयक्तिक साधना का लक्ष्य चित्तवृत्ति का समत्व है; जबकि समत्वयोग की सामाजिक साधना का लक्ष्य सामाजिक शान्ति व सुव्यवस्था है । व्यक्ति का जीवन एकांकी नहीं होता । वह समाज में रहकर ही जीता है । मात्र यही नहीं, सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक अशान्ति और अव्यवस्था उसके चैतसिक समत्व को भी भंग करते हैं। हम सामाजिक जीवन और बाह्य परिवेश से पूर्णतः अलग-थलग नहीं रह सकते । समत्वयोग की वैयक्तिक साधना
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