Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 284
________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना २३३ जन्म देती है। तब उसका आधार योग्यता नहीं, जातिगत निहित स्वार्थ होते हैं। अतः जब सामाजिक जीवन में वर्णवाद या जातिवाद समाप्त होगा, तब ही समत्वयोग या समभाव की साधना सार्थक होगी। समत्वयोग की साधना का मार्ग प्रत्येक व्यक्ति के लिये बिना किसी भेदभाव के समान भाव से खुला है। उसमें धनी अथवा निर्धन अथवा ऊँच या नीच का किसी प्रकार का कोई भेद नहीं है। आचारांगसूत्र में कहा है कि समत्व की साधना का उपदेश सभी के लिये समान है। जो उपदेश एक धनवान या उच्चकुल के व्यक्ति के लिये है, वही उपदेश गरीब या निम्नकुल व्यक्ति के लिये दिया गया है। किन्तु सामाजिक जीवन में जहाँ अहं की भावना पुष्ट होती है, तो वहीं ऊँच-नीच की भेदरेखा खिंच जाती है। किन्तु, जीवन में जब तक भेदभाव एवं विषमता की वृत्ति रहेगी, समता या समत्वयोग की साधना सम्भव नहीं होगी। जैन धर्म में हरिकेशीबल जैसे चाण्डाल कुलोत्पन्न व्यक्ति, अर्जुनमाली जैसे घोर हिंसक और पुनिया जैसे अत्यन्त निर्धन व्यक्ति का स्थान वही रहा है, जो स्थान इन्द्रभूति जैसे ब्राह्मण विद्वान तथा धन्नाशालिभद्र जैसे श्रेष्ठिरत्नों का है।" जैन धर्म में जन्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र आदि रूप वर्ण व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया गया है। मनुष्य जाति की दृष्टि से वे सभी समान हैं। व्यक्ति जन्म से ऊँच-नीच, धनवान-गरीब नहीं होता, किन्तु कर्म से होता है। जन्म के आधार पर जाति का निश्चय नहीं किया जा सकता। कर्म या आचरण के आधार पर चातुर्वण्य व्यवस्था का निर्णय करना होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय और कर्म से ही वैश्य या शुद्र होता है। जाति की अपने आप में कोई विशेषता नहीं।२ महत्त्व सदाचरण का है। सामाजिक या व्यवसायिक व्यवस्था के क्षेत्र /२/६/१०२ । उत्तराध्ययनसूत्र १२/३६ । वही २५/३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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