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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं। इन तीनों ही सिद्धान्तों का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज के मध्य अथवा समाजों के मध्य होने वाले संघर्षों के उपशमन से है। अहिंसा की अवधारणा व्यक्ति और समाज अथवा विभिन्न समाजों और राष्ट्रों के मध्य होने वाले भौतिक स्वार्थ पर आधारित संघर्षों को उपशान्त करती है। किन्तु संघर्ष केवल भौतिक या आर्थिक ही नहीं होते, वैचारिक भी होते हैं। कभी-कभी तो वैचारिक वैषम्य के कारण ही बाह्य जगत् में संघर्ष उत्पन्न हो जाते हैं। समत्वयोग की साधना का लक्ष्य केवल सामाजिक और आर्थिक संघर्षों का ही निराकरण करना नहीं है। वर्तमान युग में समाजों, राष्ट्रों और धर्म सम्प्रदायों के मध्य जो संघर्ष होते हैं, उनके मूल में आर्थिक स्वार्थ या राजनैतिक स्वार्थ उतने महत्त्वपूर्ण नहीं होते, जितना वैचारिक सम्प्रदायवाद या वैचारिक साम्राज्यवाद। आज न तो अधिकार लिप्सा से उत्पन्न साम्राज्यवाद का और न आर्थिक साम्राज्य स्थापना का प्रश्न इतना महत्त्वपूर्ण रह गया है, जितना वैचारिक साम्राज्यवाद की स्थापना का। विभिन्न धर्म सम्प्रदाय और विभिन्न राष्ट्र आज वैचारिक साम्राज्यवाद हेतु अधिक प्रयत्नशील देखे जाते हैं। प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय और प्रत्येक राष्ट्र यह चाहता है कि दूसरे धर्म सम्प्रदाय और राष्ट्र उसकी वैचारिक मान्यताओं को स्वीकार करे। एक धार्मिक सम्प्रदाय दूसरे धार्मिक सम्प्रदाय के साथ जिन संघर्षों में उलझा हुआ है, उसका मुख्य आधार अपनी विचारधारा का फैलाव ही है। उन संघर्षों के माध्यम से वह अपने स्वार्थों की सिद्धि नहीं चाहता है, अपितु अपनी विचारधारा को स्वीकार कराना ही चाहता है। आज जो प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय अपने अनुयायियों कि संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से धर्मान्तरण आदि कराता है, उसका मख्य लक्ष्य कोई स्वार्थों की पूर्ति नहीं है। केवल अपनी विचारधारा के फैलाव का ही दृष्टिकोण है। दूसरा व्यक्ति हमारी विचारधारा या मान्यता को स्वीकार करे, यह वर्तमान युग का प्रमुख मुद्दा है - चाहे वह प्रश्न धार्मिक विचारधाराओं का हो, चाहे वह राजनैतिक विचारधाराओं का हो। यह तो स्पष्ट है कि जहाँ भी वैचारिक संघर्ष होंगे, वहाँ समता या सहिष्णुता का अभाव होगा। आज विश्व में जो धार्मिक और राजनैतिक असहिष्णुता बढ़ रही है, उसके कारण सामाजिक शान्ति भी भंग हो रही है। वैचारिक जगत् में सारा
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