________________
२३६
जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
और अहिंसा को सभी प्राणियों का कल्याण मार्ग निरूपित किया गया है। सर्वत्र आत्मभाव, करुणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। अहिंसा क्रिया नहीं सत्ता है। वह आत्मा की एक अवस्था है। जैनदर्शन में अहिंसा को एक व्यापक दृष्टि से स्वीकार किया गया है। अहिंसा सद्गुणों के समूह की सूचक है।
आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि जैन साधना विधि का सम्पूर्ण क्षेत्र अहिंसामय है। सभी नियम और मर्यादाएँ इसके अन्तर्गत् हैं। असत्य भाषण नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि आचार तथा नियम अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष हैं।' भगवतीआराधना में कहा गया है कि अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है तथा सब शास्त्रों का उत्पत्ति स्थान है।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के साठ पर्यायवाची नाम वर्णित किये गये हैं :
१. निर्वाण; २. निवृत्ति; ३. समाधि; ४. शान्ति ; ५. कीर्ति; ६. कान्ति; ७. शुचि; ८. पवित्र; ६. विमल; और १०. निर्मलतर आदि।
इस प्रकार साठ नाम हैं। इससे मालूम होता है कि अहिंसा का क्षेत्र कितना व्यापक है।
आचार्य भद्रबाहु ओघनियुक्ति में लिखते हैं कि पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा ही हिंसा है और आत्मा अहिंसा भी है। प्रमत्त आत्मा हिंसक और अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है।२२ आत्मा की प्रमत्त दशा हिंसा की अवस्था है और अप्रमत्त दशा अहिंसा की अवस्था है। जहाँ अहिंसा है, वहीं समत्व या समता है।
४.६ वैचारिक वैषम्य के निराकरण का सूत्र
अनेकान्त जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना की दृष्टि से मुख्यतः तीन
पुरूषार्थसिद्ध्युपाय ४/२ । भगवतीआराधना ६/६० । प्रश्नव्याकरणसूत्र १/२१ । ओघनियुक्ति ७५४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org