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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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४.५ सामाजिक वैषम्य के निराकरण का आधार
अहिंसा समत्वयोग की साधना का प्रथम सोपान अहिंसा है। अहिंसा की साधना के बिना समत्वयोग की साधना पूर्ण नहीं होती है। समत्वयोग की साधना वस्तुतः अहिंसा की साधना है। अहिंसा जैन साधना का प्राण है। अहिंसा को जैनागमों में भगवती कहा गया है। वह वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में समत्व का आधार है। हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है।
आचारांगसूत्र में कहा गया है कि भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत परमात्मा यही उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राण, भूत, जीव और सत्व को किसी प्रकार से परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिये, न किसी का हनन या घात करना चाहिये। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है। समस्त लोक की पीड़ा और दुःख को जान कर अर्हन्तों ने इस प्रकार प्रतिपादन किया है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत हैं, वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंसा चर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है। इसे सदैव स्मरण रखना ही ज्ञानी होने का सार है।६ दशवैकालिकसत्र में सभी प्राणियों के हित साधन में अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार किया गया है। भगवान महावीर ने भी साधना के क्षेत्र में इसको प्रथम स्थान दिया है। अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है। जैनदर्शन में समत्वयोग
प्रश्नव्याकरणसूत्र १/२१ । आचारांगसूत्र १/४ एवं १/१२७ । प्रश्नव्याकरण सूत्र १/२१ । सूत्रकृतांगसूत्र १/४/१० । दशवैकालिकसूत्र ६/६ । भक्तपरिज्ञा ६१ !
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