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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
भाव समाप्त हो जाता है और तद्जन्य घृणा और विद्वेष भी नहीं रहता है। जब वैयक्तिक और सामाजिक जीवन से घृणा और विद्वेष समाप्त हो जाते हैं, तो सामाजिक विषमता के लिये कोई आधार नहीं बचता है।
सामाजिक विषमता का दूसरा कारण अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन समझने की भावना है। अहंकार की वृत्ति या मान कषाय के कारण व्यक्ति अपने को ऊँचा और दूसरे को नीचा समझने लगता है। यह ऊँच-नीच की भावना सामाजिक विद्वेष और घृणा का कारण बनती है और परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होती है।
समत्वयोग की साधना में व्यक्ति को अहंकार या मान कषाय से ऊपर उठने की प्रेरणा दी गई है। अहंकार के कारण व्यक्ति अपने को दूसरों की अपेक्षा श्रेष्ठ मानता है तो स्वयं अपने और समाज के जीवन में तनाव उत्पन्न करता है और उसके कारण सामाजिक समता भंग हो जाती है। अतः सामाजिक समता की स्थापना के लिये अहंकार की भावना या ऊँच-नीच की वृत्ति को समाप्त करना
आवश्यक है। समत्वयोग की साधना का मुख्य उद्देश्य यही है कि व्यक्ति वैयक्तिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी अहंकार से मुक्त रहे। तनावों से मुक्त रहने के लिये उसे अहंकार छोड़ना पड़ेगा। जब अहंकार नहीं रहेगा, तो समाज में भी ऊँच-नीच के भाव नहीं रहेंगे और ऊँच-नीच के भाव का अभाव होने पर सामाजिक जीवन में स्वतः ही समता की स्थापना हो जायेगी।
४.३ वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के संघर्ष
इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक जीवन में स्वार्थ की वृत्ति ही संघर्ष और विषमता का मूल कारण बनती है। इसके परिणामस्वरूप वैयक्तिक एवं सामाजिक सुख-शान्ति लुप्त हो जाती है। स्वार्थ के कारण ही विषमता का जन्म होता है और विषमता
_ 'यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ।। ६ ।।'
-ईशावाष्योपनिषद् ।
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