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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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सामाजिक समता की स्थापना में जो बाधक तत्त्व है, वह परायेपन का भाव अथवा घृणा और विद्वेष की वृत्ति है। जब राग-द्वेष के कारण व्यक्ति कुछ को अपना, कुछ को पराया मान लेता है, तो सामाजिक जीवन में पारस्परिक घृणा और विद्वेष की वृत्ति विकसित होती है । जिस व्यक्ति और समाज में घृणा और विद्वेष की वृत्ति रहेगी वहाँ सामाजिक समता सम्भव नहीं है। सामाजिक समता की स्थापना के लिये यह आवश्यक है कि परस्पर घृणा और विद्वेष का अभाव हो । समत्वयोग की साधना में राग-द्वेष का त्याग आवश्यक माना गया है । राग-द्वेष के त्याग के परिणामस्वरूप अपने और परायेपन का भाव नहीं रहता है । अपने और परायेपन का भाव समाप्त होने पर आत्मवत् दृष्टि का विकास होता है । फलतः घृणा और विद्वेष स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाते हैं। घृणा और विद्वेष के समाप्त होने पर सामाजिक समता की स्थापना होती है । इसी क्रम में समणसुत्तं में कहा गया है कि तू जो अपने लिये नहीं चाहता, वह दूसरों के प्रति मत कर और जो अपने लिये चाहता है, वह दूसरों के लिये कर। जब इस प्रकार की दृष्टि का विकास होता है, तो व्यवहार समत्वपूर्ण बनता है और उससे सामाजिक जीवन में समरसता आती है ।
गीता में भी कहा गया है कि जो सभी प्राणियों को आत्मवत् देखता है, वही सम्यग्दृष्टा है ।" जैनदर्शन में प्रत्येक जीवात्मा की स्वतन्त्र सत्ता मानी गई है। वह सबको आत्मवत् मानकर आचरण करने का निर्देश देता है । सामाजिक विषमता के निराकरण के दो ही आधार हो सकते हैं।
१. सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि ( आत्मवत् सर्व भूतेषु .); और २. पारस्परिक एकत्व की अनुभूति ।
ईशावास्योपनिषद् में ऋषि कहते हैं कि जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है, उसे इस एकत्व की अनुभूति के कारण किसी के प्रति भी घृणा नहीं रहती है । इस प्रकार एकत्व की अनुभूति से भी अपने व परायेपन का
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'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । '
'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।। ३२ ।।'
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- श्रमणसूत्र पृ. ५५ ।
- गीता ६ ।
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