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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
समत्वयोग की सामाजिक साधना के बिना अधूरी होती है। क्योंकि व्यक्ति अपने आप में व्यक्ति भी है और समाज भी है। जैन धर्म निवृत्तिमार्गी धर्म है और इस आधार पर प्रायः यह समझा जाता है कि यह वैयक्तिक साधना का ही पक्षधर है। किन्तु यह सोचना सम्यक् नहीं। जैन धर्म निवृत्तिमार्ग धर्म होते हुए भी संघीय धर्म है। उसमें संघ की महत्ता बताई गई है। संघ की महत्ता को बताते हुए नन्दीसूत्र में विस्तार से विवेचन उपलब्ध होता है। यद्यपि तीर्थंकर संघ के संस्थापक होते हैं, फिर भी वे प्रवचन सभा में बैठकर 'नमो तित्थस्स' कहकर संघ को नमस्कार करते हैं। व्यक्ति चाहे कितना ही समाज में असन्तृप्त होकर जीना चाहे, किन्तु वह समाज से पूर्णतः कटकर नहीं जी सकता है। जो साधु-साध्वी समत्वयोग की वैयक्तिक साधना करते हैं, वे भी समाज निरपेक्ष होकर नहीं जी सकते हैं। समत्वयोग की वैयक्तिक साधना का सम्बन्ध हमारे चैतसिक समत्व से होता है। वह चित्तवृत्ति की समता है। जबकि समत्वयोग की सामाजिक साधना का तात्पर्य व्यक्ति का व्यवहार होता है।'
समत्वयोग की वैयक्तिक साधना आन्तरिक साधना है। जबकि समत्वयोग की सामाजिक साधना बाह्य साधना है - व्यवहारगत साधना है। समत्वयोग की साधना में वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही साधनाएँ आवश्यक हैं। वैसे समत्वयोग की वैयक्तिक साधना अर्थात् चित्तवृत्ति के समत्व के बिना समत्वयोग की सामाजिक या व्यवहारिक साधना सम्भव नही है। क्योंकि व्यवहार हमारे अन्तर की वृत्तियों की ही बाह्य अभिव्यक्ति है। अतः यह तो आवश्यक है कि समत्वयोग की साधना के क्षेत्र में सर्वप्रथम समत्वयोग की वैयक्तिक साधना ही करनी होगी। उसके अभाव में सामाजिक साधना सम्भव नहीं होगी। केवल वैयक्तिक साधना भी तब तक अधूरी कही जायेगी, जब तक व्यक्ति के बाह्य व्यवहार अर्थात् दूसरे प्राणियों के साथ उसके सम्बन्ध में परिवर्तन नहीं आता - उसकी चित्तवृत्ति का समत्व यदि उसके बाह्य व्यवहार में अभिव्यक्त नहीं होता है, तो उसकी वह समत्वयोग की साधना अधूरी ही है। उसके
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'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. १६५ ।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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