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व्यापार से हटाता हूँ। यह व्युत्सर्ग है ।
६. 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' : अर्थात् उन पाप वाली प्रवृत्तियों या व्यापार का प्रत्याख्यान करता हूँ; उनको प्रतिज्ञापूर्वक छोड़ता हूँ । यह कथन प्रत्याख्यान है ।
जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
उत्तराध्ययनसूत्र के २६वें अध्ययन में भी बताया गया है “सामाइएण सावज्जोग विरइ जनअइ” । अर्थात् सामायिक करने से जीव सावद्ययोग से विरति को प्राप्त करता है I
आत्म विशुद्धि के लिए जितनी देर तक अपनी चित्तवृत्तियों का समत्व करते हैं, उतने समय तक राग-द्वेष और तद्जन्य कषायों से निवृत्त हो जाते हैं ।
सामायिक अर्थात् समत्वयोग के लक्षण
सामायिक का मुख्य लक्षण समता और समभाव है । समता का अर्थ है मन की स्थिरता और राग-द्वेष का अभाव तथा समभाव अर्थात् सुख-दुःख में निश्चलता, एकाग्रता इत्यादि । हरिभद्रसूरि ने अष्टकप्रकरण में सामायिक के निम्न लक्षण बताये हैं :
'समता सर्वभूतेषु, संयमः शुभ भावना । ११३ आर्तरौद्र-परित्यागस्तद्धि, सामायिकं व्रतम् ।।
सभी जीवों पर समता समभाव रखना, पांचों इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना, अन्तर्हृदय से शुभ भावना या शुभ संकल्प करना और आर्त- रौद्र ध्यान का त्याग कर धर्म ध्यान का चिन्तन करना सामायिक व्रत है । रागादि विषम भावों से हटकर स्वस्वरूप में रमण करना ही सामायिक या समत्वयोग की साधना है ।
११३ सामायिकसूत्र । ११४ ' त्यक्तार्त्तरौद्रध्यानस्त्यक्त
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हेमचन्द्राचार्य ने 'योगशास्त्र' में भी सामायिक के स्वरूप का वर्णन निम्नानुसार किया है :
'त्यक्तार्त्तरौद्रध्यानस्त्यक्त सावद्य कर्मणः मुहूर्तं समता या तां विदुः सामायिक व्रतम् ।'
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सावद्यकर्मणः ।
मुहूर्त समता या तां विदुः सामायिक व्रतम् ।। ८२ ।।'
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योगशास्त्र ३ ।
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