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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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तीर्थंकर परमात्मा को जन्म से ही मति, श्रुत और अवधि - ये तीनों ज्ञान होते हैं। दीक्षा को अंगीकार करते ही उन्हें चौथा मनःपर्यव ज्ञान प्रकट हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येक तीर्थंकर परमात्मा दीक्षा ग्रहण करते समय सर्वप्रथम सामायिक की साधना की प्रतिज्ञा करते हैं : 'सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं त्ति कटु सामाइयं चरितं पडिवज्जइ।'
प्रत्येक तीर्थंकर परमात्मा केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं और सबसे प्रथम सामायिक व्रत का ही उपदेश देते हैं।
हरिभद्रसूरि ने 'अष्टकप्रकरण' में सामायिक को 'मोक्षांग रूप' अर्थात् मोक्ष का अंग बताया है :
'सामायिकं च मोक्षांग परं सर्वज्ञ भाषितम्।
वासीचन्दन कल्पनामुक्तमेतन्मदात्मनाम् ।। २६/१।।११८ वासी चन्दनकल्प में वासी शब्द का अर्थ होता है - वसूला। यह बढ़ई का एक साधन है। लकड़ी की छाल उखेड़ने में उसका उपयोग होता है। कोई व्यक्ति किसी के एक हाथ पर वसूला रखकर हाथ की त्वचा उखेड़ता हो और दूसरा व्यक्ति दूसरे हाथ पर चन्दन का लेप लगाता हो - इन दोनों के प्रति समभाव रख सके, ऐसे महात्माओं की समता को मोक्षांग रूप सामायिक या समत्वयोग बतलाया गया है। 'वासी चन्दन' का दूसरा अर्थ इस प्रकार से किया गया है कि चन्दन वृक्ष ज्यों-ज्यों काटा जाता है, त्यों-त्यों वह काटने वाली कुल्हाड़ी को भी सुगन्धित कर देता है। इसी तरह साधक भी अपने समत्वयोग के द्वारा वैर-विरोध करने वाले लोगों के प्रति समभाव रूपी सुगन्ध अर्पित करता है। इसीलिये सर्वज्ञ भगवान ने समत्व या सामायिक को मोक्ष का अंग माना है।
समत्वयोग या सामायिक के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। समताभाव धारण कर आत्मरमणता का अनुभव करने के लिये सामायिक ही एक मात्र उपाय है। इसलिये हरिभद्रसूरि ने 'अष्टकप्रकरण' में सामायिक का फल केवलज्ञान बताते हुए
१८ अष्टकप्रकरण २६/११
-हरिभद्रसूरिसूरि ।
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