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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
है । मन के कारण ही संकल्प-विकल्प उठते हैं; मन के कारण विचार अशुभ होते हैं; विचार के कारण आचरण अशुभ होता है और अशुभ आचरण के कारण व्यक्ति का समत्व भंग होता है, जिससे भाव शुद्धि सम्यक् प्रकार से नहीं हो सकती है ।
अन्य वेगों की अपेक्षा मन की गति का वेग अति तीव्र है । आजकल के वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध किया है कि प्रकाश का वेग एक सेकण्ड में १,८०,००० मील है, विद्युत का वेग २,८८,००० मील है, जबकि मन का वेग २२,६५,१२० मील है। इससे विचार किया जा सकता है कि मन का प्रवाह कितना तीव्रतम है । मन ही इन्द्रियों का राजा है, इस मन के अनुसार इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं। मन जब चंचल हो जाता है, तो कर्मों का प्रवाह चारों ओर से उमड़ पड़ता है। जैसे प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को अन्तर्मुहूर्त जितने अल्पसमय में सातवीं नरक के द्वार पर पहुँचा दिया जाता है और फिर उतने ही अल्पकाल में वे केवलज्ञान, केवलदर्शन के द्वार पर पहुँच जाते हैं। तभी तो कहा है कि 'मन विजेता जगतो विजेता ' इस मन को जीतने वाला जगत् को जीतने वाला होता है। चंचल मन पर जय पाना ही तत्त्वज्ञान की कुंजी है । इसीलिये कहा गया है कि 'मन साध्यु तेणे सधलुं साध्युं एह बात नहीं खोटी' अर्थात् एक मन को जीतने वाला सब कुछ जीत लेता है । परन्तु मन का नियंत्रित करना कठिन है । आध्यात्मिक योगी श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि :
मनडु किम हि न बाझे, कुन्थु जिन मनडु किम हि न बाझे । जेम-जेम जतन करि ने राखु, तेम तेम अलगु भागे हो ।।'
ऐसा मुश्किल कार्य दुःसाध्य है, किन्तु असाध्य नहीं है। जैसे-जैसे इसको साध्य करते जायेंगे, वैसे-वैसे गुणस्थानक की श्रेणी में चढ़ते जायेंगे। मोक्ष सिद्धि के लिये मनःशुद्धि परम आवश्यक है । मन पानी से भी पतला, धुएँ से भी बारीक और पवन से भी तेज गतिशील एवं विद्युत के वेग से भी तीव्र है । इसको काबू में किये बिना समत्व की साधना सम्भव नहीं हो सकती । इसकी उद्वेलित प्रवृत्ति से भाव शुद्धि या समत्व की साधना में विकृति आती है । मन या भावों की शुद्धि ही समत्व की साधना है ।
वचनशुद्धि मन की शक्ति परोक्ष एवं गुप्त है। अतः वहाँ कुछ
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