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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
आचार्य अभयदेवसूरि पंचाशकवृत्ति में कहते हैं कि ‘स च किल सामायिकं कुर्वन् कुण्डले, नाममुद्रा चापनयति पुष्प ताम्बूल प्रावरायिकं च व्युत्सृजतीत्येष विधिः सामायिकस्य'।
उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि हरिभद्रसूरि ने भी पूर्व प्रचलित प्राचीन परम्परा का ही उल्लेख किया है, नवीन का नहीं। अतः गृहस्थवेषोचित वस्त्र उतारना ही उचित है। प्राचीन काल मे केवल धोती और दुपट्टा ही धारण किया जाता था। अर्वाचीन काल में पगड़ी, कोट, कुरता, पाजामा आदि पहने जाते हैं, अतः वे उतारकर रखे जाते हैं। स्त्रियों के लिये मर्यादित वस्त्र जितनी आवश्यकता हो उतने ही वस्त्र धारण करें, अन्य वस्त्रों को परिग्रह समझ कर त्याग करना उचित है।
प्रत्येक विधि-विधान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि को लक्ष्य में रखकर करने चाहिये। द्रव्यशुद्धि की इसलिये आवश्यकता है कि द्रव्यशुद्धि से भाव शुद्ध होते हैं। अच्छे-बुरे पुद्गलों का मन पर असर होता है। बाह्य वातावरण अन्तर के वातावरण को प्रभावित करता है। अतः मन में अच्छे विचार एवं सात्विक भाव स्फुरित करने के लिये द्रव्यशुद्धि साधारण साधक के लिये भी आवश्यक है। व्यवहारदृष्टि से बाह्य वातावरण मन को प्रभावित करता है। अतः द्रव्यशुद्धि से साधक सामायिक या समभाव में स्थिर बना रहता है।
४. भावविशुद्धि - द्रव्यविशुद्धि, क्षेत्रविशुद्धि और कालविशुद्धि साधना के बहिरंग तत्त्व है और भावविशुद्धि आत्मा का अन्तरंग तत्त्व है। भावविशुद्धि अर्थात् मन की शुद्धि। मन की शुद्धि ही सामायिक या समत्व की साधना का सर्वस्व सार है। जीवन को उन्नत बनाने के लिये मन, वचन और काय से होने वाली दुष्प्रवृत्तियों को रोकना होगा। अन्तरात्मा में मलिनता पैदा करने वाले दोषों का त्याग करना होगा। आर्त और रौद्र ध्यान से बचना होगा। तब ही व्यक्ति का चित्त सामायिक या समत्वयोग में एकाग्र बन सकता है। भाव शुद्धि के लिये मन, वचन और काया की शुद्धि किस प्रकार से की जाती है, वह इस प्रकार है : ___मनःशुद्धि - जैसे कहा गया है- 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः' अर्थात् मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण
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