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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
है। सामायिक आदि क्रिया में पूंजने-प्रमार्जन या जीव रक्षा के लिये श्रावक-श्राविकाएँ ऊन का जो गुच्छा रखती हैं, उसको चरवला कहते हैं। साधु-साध्वी भी जीव रक्षा या पूंजने-प्रमार्जन के लिये ऊन का उससे थोड़ा मोटा गुच्छा रखते हैं, उसे ओघा या रजोहरण कहते हैं।
चरवले शब्द का अर्थ है चर+वलो = चरवलो। चर अर्थात् चलना, फिरना, उठना अथवा बैठना; वलो अर्थात् पूंजना-प्रमार्जना। सामायिक में पूंजना-प्रमार्जना करके चलना, फिरना, उठना और बैठना चाहिये। इसलिये सामायिक में चरवला अत्यन्त उपयोगी उपकरण है। इससे स्पष्ट होता है कि इसकी आवश्यकता जीव रक्षा के लिये है। आत्मार्थी प्राणी को सर्वजीवों को अपनी आत्मा के समान मानकर उनकी रक्षा करनी चाहिये। इस चरवले का माप ३२ अंगुल का होता है, जिसमें डण्डी २४ अंगुल की ओर ऊन की फलियां ८ अंगुल की होती हैं।
आसन (कटासन) - आसन को कटासन भी कहते हैं। कुछ लोग इसको पादप्रोञ्छन/पोंचणु भी कहते हैं। आसन लगभग एक हाथ लम्बा, चार हाथ अंगुल चौड़ा होता है। सामायिक करते समय ऐसा आसन उपयोगी होता है। कोमल, गदगदे अथवा दिखने में सुन्दर रंग-बिरंगे फूलदार आसन बिछाना सामायिक में उचित नहीं होता है। अतः आसन सादा एवं ऊनी हो, जिससे जीवों की यतना सम्यक् प्रकार से हो सके।
मुंहपत्ति (मुखवस्त्रिका) - मुख के आगे रखने का वस्त्र। सामायिक में बोलते समय मुख से चार अंगुल दूर मुंहपत्ति रखकर बोलना चाहिये। यह एक बेंत ४ अंगुल लम्बी और एक बेंत ४ अंगुल चौड़ी होती है। मुंहपत्ति हमें ऐसा पारमार्थिक बोध देती है कि सावद्य (हिंसा एवं पापजनक) वचन नहीं बोलने चाहिये। सामायिक में बोलते समय भाषा समिति का पूर्णतः ध्यान रखना चाहिये। उत्सूत्र, असत्य अथवा अप्रिय वचन नहीं बोलना चाहिये। खुले मुंह बोलने से समीपस्थ वस्तु, पुस्तक, माला तथा स्थापनाचार्य पर थूक गिरने की सम्भावना रहती है, जिससे आशातना के कारण बनते हैं। उस आशातना से बचने के लिये मुंहपत्ति एक साधन है। मुंहपत्ति का उपयोग विवेकपूर्वक करने से संपातिक त्रस (मक्खी,
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