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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
में समभाव की पुष्टि करने के लिये क्षेत्र-शुद्धि सामायिक का एक अत्यावश्यक अंग है । अतः सामायिक करने के लिये वही स्थान उपयुक्त हो सकता है, जो कोलाहल से शून्य हो । उपासकदशांगसूत्र में इसका समर्थन किया गया है कि धर्माराधना के लिये एकान्त कमरा, सार्वजनिक पौषधशाला, उपासना गृह, जिनालय, उपाश्रय आदि जहाँ चित्त स्थिर रह सके और आत्मचिन्तन किया जा सके; उचित स्थान हैं ।
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घर की अपेक्षा उपाश्रय में सामायिक करना ज्यादा उचित रहता है । उपाश्रय का वातावरण गृहस्थी से भिन्न होता है । उपाश्रय ज्ञान के आदान-प्रदान का सुन्दर साधन है । उपाश्रय शब्द की व्युत्पत्ति है
उप = उत्कृष्ट + आश्रय = स्थान; अर्थात् व्यक्ति के लिये घर केवल आश्रय है, जबकि उपाश्रय इहलोक और परलोक दोनों प्रकार के जीवन को उन्नत बनाने वाला एवं धर्म साधना के लिये उपयुक्त स्थान उपाश्रय उत्कृष्ट आश्रय है । दूसरी व्युत्पत्ति इस प्रकार है उप = उचित + आश्रय = स्थान; अर्थात् निश्चयदृष्टि से आत्मा के लिये उचित आश्रय स्थल वह स्वयं ही है । अतः धर्मस्थान उपाश्रय कहलाता है । तीसरी व्युत्पत्ति है समीप उप = स्थान अर्थात् जहाँ आत्मा अपने विशुद्ध भावों के पास पहुँच सके, उसका आश्रय ले सके ऐसा एक मात्र धार्मिक वातावरण हो; एकान्त, निरामय, निरुपद्रव एवं कायिक, वाचिक और मानसिक क्षोभ से रहित हो, शान्त - प्रशान्त हो और शुद्ध परमाणु हो । यदि घर में भी ऐसा कोई एकान्त स्थान हो, तो वहाँ पर सामायिक करना क्षेत्रविशुद्धि है ।
+ आश्रय
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३. द्रव्यविशुद्धि द्रव्य का तात्पर्य बाह्य विधि विधानों या साधनों से है । द्रव्य - सामायिक में निम्न उपकरणों की आवश्यकता होती है चरवला, मुख- वस्त्रिका ( मुहपत्ति); स्थापनाचार्य (ठवणी, पुस्तक, माला) की स्थापना करना एवं सामायिक में श्वेत- शुद्ध वस्त्र आदि साधन ग्रहण करना आवश्यक है । जो उपकरण सामायिक या संयम की अभिवृद्धि में सहायक हों, ऐसे अल्पारम्भ, अहिंसक एवं उपयोगी उपकरण हों, जिसके द्वारा जीवों की भली भाँति यतना हो ऐसे उपकरणों का सामायिक में उपयोग करना चाहिये। यह जयणा या यतना जीवरक्षा के लिये आवश्यक
सके
चरवला
२०६
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