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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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१. कालविशुद्धि : वैसे तो श्रमण साधक सदैव ही सामायिक की साधना में लीन रहता है, फिर भी दिगम्बर परम्परा में प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या को सामायिक की विशिष्ट साधना की जाती है। श्वेताम्बर मुनि भी षडावश्यक के एक अंग के रूप में प्रातः और संध्या काल में सामायिक की विशिष्ट साधना करते हैं। गृहस्थ साधक के लिये इसकी एक काल-मर्यादा निश्चित की गई है। सामायिक की साधना के समुचित काल का निर्णय कालविशुद्धि के लिये आवश्यक है। जैन दार्शनिकों का कहना है कि समय पर की गई साधना सफलीभूत होती है।३३ सामायिक की साधना के लिये अनुकूल समय का निर्णय आवश्यक है। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी इसका समर्थन किया है।३४
सामायिक की साधना के लिये गृहस्थ के हेतु सभी काल समीचीन नहीं कहे जाते। सर्वप्रथम शारीरिक दृष्टि से मलमूत्र आदि के आवेगों के होते हुए सामायिक करना उचित नहीं माना जा सकता; क्योंकि उसमें चित्त की एकाग्रता नहीं बनती। इसी प्रकार भूख, प्यास आदि से अति व्याकुल स्थिति में भी सामायिक की साधना सम्भव नहीं होती; क्योंकि सामायिक की साधना का अर्थ चित्तवृत्ति का समत्व या चेतना का तनावों से रहित होना है। जब तक शरीर है, जैविक स्थितियाँ भी तनाव का कारण है, तब तक सामायिक की साधना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार गृहस्थ के लिये वह काल जब उसे अपने व्यावसायिक दायित्वों को पूर्ण करना होता है, सामायिक के लिये उचित काल सम्भव नहीं हो सकता। यह बात अलग है कि निवृत्ति को प्राप्त श्रावक किसी भी समय सामायिक कर सकता है। किन्तु जो अपने व्यवसाय आदि से जड़ा हुआ है अथवा शासकीय, अशासकीय या किसी प्रकार की नौकरी आदि में लगा हुआ है, वह व्यक्ति भी हर किसी समय सामायिक की साधना नहीं कर सकता। गृहस्थ के लिये अपने पारिवारिक और व्यवसायिक दायित्व का निर्वाह करना आवश्यक होता है। अतः वह सर्वकाल में सामायिक के लिये योग्य नहीं माना गया है। सामायिक के लिये वही काल समुचित हो सकता है, जब व्यक्ति
१३३ उत्तराध्ययनसूत्र १/३१ । १३० पुरूषार्थसिद्ध्युपाय १४६ ।
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