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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
इस समास सामायिक पर चिलाती पुत्र का दृष्टान्त मिलता है। ५. संक्षेप : द्वादशांगी का सार रूप तत्त्व जानना। इस संक्षेप
सामायिक पर लौकिकाचार पण्डितों का दृष्टान्त मिलता है। ६. अनवद्य : अनवद्य का अर्थ है, निष्पाप। पाप रहित आचरण
रूप सामायिक अनवद्य कहलाती है। उस पर धर्मरुचि अणगार
का दृष्टान्त मिलता है। ७. परिज्ञा : परिज्ञा का अर्थ है, तत्त्व को अच्छे रूप से जानना।
परिज्ञा सामायिक पर इलाचीकुमार का दृष्टान्त मिलता है। ८. प्रत्याख्यान : प्रत्याख्यान का अर्थ है, त्याग या दृढ़ प्रतिज्ञा।
प्रत्याख्यान सामायिक पर तेतलीपुत्र का दृष्टान्त मिलता है। जैन धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर परमात्मा भी साधना में प्रविष्ट होते समय सामायिक चारित्र ग्रहण करते हैं। उसके द्वारा केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर वे सभी प्राणियों के कल्याण के लिये सर्वप्रथम सामायिक अर्थात् समत्वयोग की साधना का उपदेश देते हैं। उनके इसी उपदेश के आधार पर गणधर अपने बुद्धिबल से द्वादशांगी की रचना करते हैं। इस प्रकार सामायिक को जिनागमों का सार तत्त्व कहा गया है। द्वादशांगी का आरम्भ सामायिकसूत्र से ही होता है। साधक अपने अध्ययन क्रम में सर्वप्रथम सामायिकसूत्र का ही अध्ययन करता है।
सामायिक ब्रह्मस्वरूप है। वह शुद्ध आत्मा का साक्षात्कार कराती है; क्योंकि यह क्लिष्ट चित्तवृत्तियों को शान्त स्वभाव में स्थिर करती है। सामायिक सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यकुचारित्र रूपी रत्नत्रयी को प्राप्त कराने वाली अमोघ औषधि है। सामायिक की क्रिया बहुत ही पवित्र एवं विशुद्ध क्रिया है। ४८ मिनिट (दो घड़ी) तक एकान्त स्थान में बैठकर सावध व्यापारों का त्याग कर, सांसारिक उलझनों से विरक्त होकर अपनी योग्यता के अनुसार अध्ययन, चिन्तन, ध्यान, जप आदि करना सामायिक है।
सामायिक में लगने वाले दोष
गृहस्थ विधिपूर्वक, चेतनापूर्वक और ध्यानपूर्वक सामायिक करने बैठता है, फिर भी कभी-कभी जाने-अनजाने में मन, वचन और काया सम्बन्धी दोष हो जाने की सम्भावना रहती है। इसलिये
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