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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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५. योग; ६. शरीर; ७. सहाय; ८. भक्त; और ६. सद्भाव प्रत्याख्यान (प्रवृत्तिमात्र का प्रत्याख्यान)।"
वस्तुतः प्रत्याख्यान अमर्यादित जीवन को मर्यादित या अनुशासित बनाता है। जैन परम्परा के अनुसार आस्रव एवं बन्धन का एक कारण अविरति भी कहा गया है। प्रत्याख्यान अविरति का निरोध करता है। प्रत्याख्यान त्याग के सम्बन्ध में ली गई प्रतिज्ञा या
आत्म--निश्चय है। प्रत्याख्यान दुराचार से निवृत्त होने के लिए किया जाने वाला द्दढ़ संकल्प है। उसके अभाव में नैतिक जीवन में प्रगति सम्भव नहीं है। स्थानांगसूत्र में प्रत्याख्यान-शुद्धि के लिए पांच विधान हैं : १. श्रद्धान शुद्ध; २. विनय शुद्ध; ३. अनुभाषण शुद्ध;
४. अनुपालन शुद्ध; और ५. भाव शुद्ध । इन पांचों के होते हुए गृहीत प्रतिज्ञा शुद्ध होती है और ये नैतिक प्रगति में सहायक होते हैं। __यदि व्यक्ति इन छः आवश्यकों को विधिपूर्वक एवं भावपूर्वक करता है, तो उसकी सभी क्रियाएँ स्थूल या सूक्ष्म रूप से समत्वयोग में समाविष्ट हो जाती हैं; क्योंकि ये सभी परस्पराश्रित हैं। सामायिक या समत्वयोग की प्रतिज्ञा विधि में भी इन समस्त आवश्यक क्रियाओं को क्रम से समाविष्ट किया गया है : १. 'करेमि...समाइयं...' : सामायिक आवश्यक - समतापूर्वक
सामायिक करने की अनुज्ञा ।। २. 'भन्ते...भदन्त...भगवान' : जिनेश्वर भगवान से प्रार्थना _ 'चतुर्विंशतिस्तव' है। ३. 'तस्स भन्ते...' : गुरूओं को वन्दन करते करते आत्मनिन्दा
और गर्दा की जाती है, वह वन्दन है। ४. 'पडिकम्मामि...' : पापों की निन्दा करना या पापों से मुक्त
होने के लिए प्रायश्चित करना प्रतिक्रमण की क्रिया है। ५. 'अप्पाणं...वोसरामि...' : अर्थात् मैं आत्मा को उस पापरूप
17 उत्तराध्ययनसूत्र २६/३३-४१ । ११२ स्थानांगसूत्र ५/३/४६६ ।।
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