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________________ १६२ व्यापार से हटाता हूँ। यह व्युत्सर्ग है । ६. 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' : अर्थात् उन पाप वाली प्रवृत्तियों या व्यापार का प्रत्याख्यान करता हूँ; उनको प्रतिज्ञापूर्वक छोड़ता हूँ । यह कथन प्रत्याख्यान है । जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना उत्तराध्ययनसूत्र के २६वें अध्ययन में भी बताया गया है “सामाइएण सावज्जोग विरइ जनअइ” । अर्थात् सामायिक करने से जीव सावद्ययोग से विरति को प्राप्त करता है I आत्म विशुद्धि के लिए जितनी देर तक अपनी चित्तवृत्तियों का समत्व करते हैं, उतने समय तक राग-द्वेष और तद्जन्य कषायों से निवृत्त हो जाते हैं । सामायिक अर्थात् समत्वयोग के लक्षण सामायिक का मुख्य लक्षण समता और समभाव है । समता का अर्थ है मन की स्थिरता और राग-द्वेष का अभाव तथा समभाव अर्थात् सुख-दुःख में निश्चलता, एकाग्रता इत्यादि । हरिभद्रसूरि ने अष्टकप्रकरण में सामायिक के निम्न लक्षण बताये हैं : 'समता सर्वभूतेषु, संयमः शुभ भावना । ११३ आर्तरौद्र-परित्यागस्तद्धि, सामायिकं व्रतम् ।। सभी जीवों पर समता समभाव रखना, पांचों इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना, अन्तर्हृदय से शुभ भावना या शुभ संकल्प करना और आर्त- रौद्र ध्यान का त्याग कर धर्म ध्यान का चिन्तन करना सामायिक व्रत है । रागादि विषम भावों से हटकर स्वस्वरूप में रमण करना ही सामायिक या समत्वयोग की साधना है । ११३ सामायिकसूत्र । ११४ ' त्यक्तार्त्तरौद्रध्यानस्त्यक्त — हेमचन्द्राचार्य ने 'योगशास्त्र' में भी सामायिक के स्वरूप का वर्णन निम्नानुसार किया है : 'त्यक्तार्त्तरौद्रध्यानस्त्यक्त सावद्य कर्मणः मुहूर्तं समता या तां विदुः सामायिक व्रतम् ।' ११४ Jain Education International सावद्यकर्मणः । मुहूर्त समता या तां विदुः सामायिक व्रतम् ।। ८२ ।।' For Private & Personal Use Only योगशास्त्र ३ । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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