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________________ समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना १६३ आर्त्त और रौद्र ध्यान तथा सावध कर्मों का त्याग कर एक मुहूर्त तक समभाव में रहने को सामायिक व्रत कहा जाता है। - 'सावद्यकर्ममुक्तस्य दुर्ध्यान रहितस्य च . समभावो मुहूर्त तद्-वतं सामायिकाहवम्' सावध कर्म से दूर होकर एक मुहूर्त के लिये समभाव में स्थिर होना ही सामायिक है। महर्षियों ने सामायिक के लक्षण इस प्रकार बताये हैं : १. सभी जीवों के प्रति समभाव रखना; २. आर्त और रौद्र ध्यान का त्याग करना; ३. शुद्ध भाव रखना; ४. सावद्य योगों (पापमय प्रवृत्तियों) से निवृत्त होना; ५. संयम धारण करना; ६. सामायिक की आराधना कम से कम एक मुहूर्त के लिये (दो घड़ी अथवा ४८ मिनिट) करना। समता या समभाव सामायिक की साधना का सब से महत्त्वपूर्ण लक्षण है, जिसमें दूसरे सभी लक्षणों का समावेश हो जाता है। जिस प्रकार पुष्प का सार गन्ध है, दुग्ध का सार घृत है, तिल का सार तेल है और इक्षु का सार मिठास है; उसी प्रकार सामायिक का सार समता है। समता के बिना सामायिक निष्प्राण है। ___ सन्त आनन्दघनजी ने बताया है कि समता आत्मा की स्वभाव दशा है और ममता विभावदशा। उन्होंने समता को आत्मा (चेतन) की सहधर्मिणी अर्थात बड़ी पत्नी और ममता को आत्मा की विधर्मिणी अर्थात छोटी पत्नी के रूप में कल्पित किया है। इसके साथ उन्होंने समता को आत्मा का निजघर और ममता को आत्मा का परघर कहा है। समता का दर्शन समभाव को जाग्रत करता है और समानता के बोध को भी परिपुष्ट बनाता है। आत्मा जब समत्व के चश्में से देखती है, तो ममत्व का आवरण दूर हट जाता है; क्योंकि आत्मा का शुद्ध स्वरूप समत्वमय है। जब समता का विकास होता है, तो ममता क्षीण हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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