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________________ १६४ सामायिक का स्वरूप अनुयोगद्वारसूत्र आवश्यकनिर्युक्ति में समभाव रूप वर्णन मिलता है "५ : .११५ 'जो समो सव्वभूऐसु तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इह केवलि भासियं । ।' जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना जो साधक त्रस, स्थावर रूप सभी जीवों पर समभाव रखता है, उसकी ही शुद्ध सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है । 'जस्स समणिओ अप्पा संयमे नियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इह केवलि - भासियं । ।' कृत तथा आचार्य भद्रबाहुस्वामी सामायिक का बहुत ही सुन्दर जिसकी आत्मा संयम तप नियम में संलग्न होती है उसकी, सामायिक ही शुद्ध सामायिक है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है । आचार्य हरिभद्रसूरि ने पंचाशक में कहा है कि . ११६ 'समभावो सामाइयं, तण - कंचन - सत्तु मित्त विसउत्ति । णिरभिस्संग चित्त उचिय पवित्तिप्पहाणं च।।' चाहे तिनका हो या सोना, शत्रु हो या मित्र सभी में अनासक्त रहना या पाप रहित धार्मिक प्रवृत्ति करना ही सामायिक है। ११५ आवश्यक नियुक्ति ७६६ । ११६ पंचाशक ११/५ । ११७ तत्वार्थ टीका १/१ । Jain Education International : - ११७ तत्त्वार्थसूत्र की टीका में उपाध्याय यशोविजयजी ने सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशांगी के उपनिषद् के रूप में बताया है ' ‘सकल द्वादशांगोपानिषद् भूत' - सामायिक सूत्रवत् पूर्वजन्म की आराधना के कारण सभी तीर्थंकर परमात्मा स्वयंबुद्ध ही होते है । वे भी सिद्ध भगवन्तों एवं अपनी आत्मा को साक्षी रखकर सावद्य योग के पच्चक्खाण लेकर यावज्जीवन सामायिक व्रत को ग्रहण करते हैं तथा गृहस्थ वेष का त्याग कर पंचमुष्टि लोच कर सामायिक की प्रतिज्ञा लेकर स्वयं दीक्षित हो जाते हैं । For Private & Personal Use Only : www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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