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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
___ द्रव्य कायोत्सर्ग शारीरिक चेष्टा का निरोध है और भाव कायोत्सर्ग ध्यान है। इस आधार पर जैनाचार्यों ने कायोत्सर्ग की एक चौभंगी दी है। १. उत्थित : उत्थित काय चेष्टा के निरोध के साथ ध्यान में
प्रशस्त विचार का होना। २. उत्थित-निविष्काय : चेष्टा का निरोध तो हो, लेकिन विचार
(ध्यान) अप्रशस्त हो। ३. उपविष्ट-उत्थित : शारीरिक चेष्टाओं का पूरी तरह निरोध न
हो पाता हो, लेकिन विचार विशुद्धि हो। ४. उपविष्ट-निविष्ट : न तो विचार (ध्यान) विशुद्धि हो और न
शारीरिक चेष्टाओं का निरोध ही हो। इनमें पहला और तीसरा प्रकार ही आचरणीय है।
कायोत्सर्ग के दोष : प्रवचन सारोद्वार में कायोत्सर्ग के १६ दोष वर्णित हैं :
१. घोटक दोष; २. लता दोष; ३. स्तम्भकुड्य दोष; ४. माल दोष; ५. शबरी दोष; ६. वधू दोष; ७. निगड दोष; ८. लम्बोतर दोष; ६. स्तन दोष; १०. उर्द्धिका दोष; ११. संयती दोष; १२. खलीन दोष; १३. वायस दोष; १४. कपित्य दोष; १५. शीर्षोत्कम्पित दोष; १६. मूक दोष; १७. अंगुलिका भूदोष; १८. वारूणी दोष; और १६. प्रज्ञा दोष।
इन दोषों का सम्बन्ध शारीरिक एवं आसन सम्बन्धी अवस्थाओं से है। इन दोषों के प्रति सावधानी रखते हुए कायोत्सर्ग करना चाहिये।
कायोत्सर्ग चित्त की एकाग्रता पैदा करता और आत्मा को अपना स्वरूप विचारने का अवसर देता है, जिससे आत्मा निर्भय बनकर अपना कठिनतम उद्देश्य सिद्ध कर सकती है। इसी कारण कायोत्सर्ग क्रिया आध्यात्मिक है। कायोत्सर्ग तप में सबसे प्रमुख है। कायोत्सर्ग में जो साधक सिद्ध हो जाता है, वह सम्पूर्ण व्युत्सर्ग तप में भी सिद्ध हो जाता है।०४
१०४ (क) 'तुम अनन्त शक्ति के स्त्रोत हो' पृ. २७-२८ ।
-मुनि नथमलजी। (ख) 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ४०७ ।
-डॉ. सागरमल जैन।
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