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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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-राई प्रतिक्रमण में ५० श्वासोच्छवास का काउसग्ग; -देवसी प्रतिक्रमण में १०० श्वासोच्छवास का काउसग्ग; -पाक्षिक प्रतिक्रमण में ३०० श्वासोच्छवास का काउसग्ग; -चौमासी प्रतिक्रमण में ५०० श्वासोच्छवास का काउसग्ग; और -सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में १००८ श्वासोच्छवास का काउसग्ग।
५. कायोत्सर्ग
कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ शरीर का उत्सर्ग करना है। सीमित समय के लिये ममत्व का परित्याग कर शारीरिक क्रियाओं की चंचलता को समाप्त करने का जो प्रयास किया जाता है, वह कायोत्सर्ग है। जैन साधना में कायोत्सर्ग का महत्त्व बहुत अधिक है। प्रत्येक अनुष्ठान के पूर्व कायोत्सर्ग की परम्परा है। वस्तुतः देहाध्यास को समाप्त करने के लिए भी कायोत्सर्ग आवश्यक है। कायोत्सर्ग शरीर के प्रति ममत्व भाव को कम करता है। आचार्य भद्रबाहु आवश्यकनियुक्ति में शुद्ध कायोत्सर्ग के स्वरूप के सम्बन्ध में लिखते हैं कि चाहे कोई भक्तिभाव से चन्दन लगाए, चाहे उसी क्षण मृत्यु आ जाए; परन्तु जो साधक देह में आसक्ति नहीं रखता, सब स्थितियों में समभाव रखता है, वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग शुद्ध होता है।०३ देहव्युत्सर्ग के बिना देहाध्यास का टूटना सम्भव नही। जब तक देहाध्यास या देहभाव नहीं छूटता तब तक मुक्ति सम्भव नहीं। इस प्रकार देहाध्यास को छोड़ने के लिये कायोत्सर्ग भी आवश्यक है। कायोत्सर्ग की मुद्रा :
१. जिनमुद्रा में खड़े होकर; २. पद्मासन या सुखासन से बैठकर; और
३. लेटकर। कायोत्सर्ग की अवस्था में शरीर शिथिल होना चाहिये।
कायोत्सर्ग के प्रकार - जैन परम्परा में कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं : १ द्रव्य; और २ भाव।
१०३ 'वासी-चंदणकप्पो, जो मरणे जीविए च समसण्णो ।
देहे य अवडिबद्धो, काउसग्गो हवई तस्स ।। १५४६ ।।'
-आवश्यकनियुक्ति ।
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