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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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होना यावत्कथित प्रतिक्रमण है। यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण : सावधानीपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए भी प्रमाद तथा असावधानी से किसी भी प्रकार असंयम रूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस भूल को स्वीकार कर लेना और उसके प्रति पश्चाताप करना यत्किंचिन्मिथ्या
प्रतिक्रमण है। ६. स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण : विकार-वासना रूप कुस्वप्न देखने पर
उसके सम्बन्ध में पश्चाताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण है।०२ मिथ्यात्व : तत्त्व के विपरीत श्रद्धा को मिथ्यात्व कहते हैं;
जैसे - शरीर, प्राण आदि को आत्मा
मानना। अव्रत : हिंसा आदि पांच पापों की प्रवृत्ति को अव्रत
कहते हैं। प्रमाद : विषय और कषाय में और आत्मा की
परपरिणति को प्रमाद कहते हैं। कषाय : आत्मा में राग-द्वेष आदि की जो प्रवृत्ति
मोहभाव के कारण होती है, उसे कषाय कहते हैं। जिससे संसार की वृद्धि हो, वह कषाय
हैं। कष् यानि संसार, आय यानि वृद्धि। अशुभ योग : मन, वचन, काया की सावध प्रवृति को अशुभ
___ योग कहते हैं। प्रतिक्रमण का नाम आवश्यकसूत्र अर्थात् अवश्य करने योग्य कार्य। जैसे वस्त्र पर तुरन्त लगा दाग जल्दी निकल जाता है; प्रतिदिन पानी के सींचन से बाग हरा-भरा हो जाता है, वैसे ही आत्मा का दाग (प्रतिदिन) प्रतिक्रमण से शीघ्र दूर हो जाता है। प्रतिक्रमण से हमारी आत्मा पापों से पीछे हटती है जिससे आत्मा रूपी बाग (वैराग्य भाव से) हरा-भरा हो सकता है।
आवश्यकसूत्र (प्रतिक्रमण) करते समय निम्न प्रकार के आसन किये जाते हैं :
१. वाम - उल्टा घुटना, विनय का प्रतीक, नमोत्थुणं; २. दायां - सीधा घुटना, वीरता का प्रतीक, श्रमणसूत्र (वंदित्तुसूत्र);
१०२ स्थानांगसूत्र ६/५३८ ।
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