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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
सामायिक है। ६. भाव सामायिक : समस्त जीवों पर मैत्रीभाव धारण करना, किसी भी परिस्थिति में किसी प्रकार का वैर-विरोध नहीं रखना
- भाव सामायिक है।८३ इसी प्रकार बुद्ध, शुद्ध और मुक्त स्वरूप में रही हुई आत्मा ही सामायिक है। सामायिक की साधना बहुत ऊँची है। आत्मा का पूर्ण विकास सामायिक के बिना सर्वथा असम्भव है। धर्म-क्षेत्र की जितनी भी अन्य साधनाएँ हैं, उन सबका मूल सामायिक ही है। __ समत्व-वृत्ति की यह साधना सभी वर्ग, सभी जाति और सभी धर्म वाले कर सकते हैं। किसी वेशभूषा और धर्म-विशेष से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि कोई भी मनुष्य चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, जैन हो या अजैन, समत्व-वृत्ति की आराधना कर सकता है। वस्तुतः जो समत्व वृत्ति की साधना करता है वह जैन ही है, चाहे वह किसी जाति, वर्ग या धर्म का क्यों न हो। आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई, जो भी समत्ववृत्ति का आचरण करेगा, वह मोक्ष प्राप्त करेगा, इसमें सन्देह नहीं है।५।।
समत्वयोग की साधना के लिये सामायिक साधना की जीवन में नितान्त आवश्यकता है। इस पथ की ओर अपना निरन्तर लक्ष्य बनाये तभी समत्व की साधना सफल हो सकती है।
२. चतुर्विंशतिस्तव (भक्ति) : ___यह दूसरा आवश्यक है। जैन आचार के अनुसार चौबीस तीर्थंकर, जो कि स्वगुण सम्पन्न हैं और राग द्वेष से विरक्त हैं; उनकी स्तुति करना। स्तुति अथवा भक्ति के माध्यम से साधक अपने अहंकार का नाश और सद्गुणों के प्रति अनुराग की वृद्धि करता है। तीर्थंकर एवं सिद्ध परमात्मा किसी को कुछ नहीं देते हैं। वे तो मात्र संसार समुद्र से पार होने का उपाय बताते हैं। फिर भी
८३ 'भाव सामायिकं सर्वजीवेषु मैत्रीभावोऽशुभपरिणामवर्जनं वा ।' ६४ भगवतीसूत्र २५/७, २१-२३ । ८५ 'जिनवाणी' सामायिक अंक पृ. ५७ ।
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