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छः आवश्यकों का विस्तृत विवेचन डॉ. सागरमल जैन ने 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन' ( भाग २ पृ. ३६२-४०७ ) में विस्तृत रूप से किया है । हम उसी के आधार पर इस चर्चा को संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं :
जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
अवलोकन करके निष्कपट भाव से उनका संशोधन करना और पुनः वैसी गलतियां न हों, इसके लिये आत्मा को जाग्रत
१. सामायिक :
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षडावश्यकों में सामायिक को सर्वोपरी स्थान दिया गया है सामायिक समत्ववृत्ति की साधना है । धर्म में समत्व की साधना को साधनात्मक जीवन का अनिवार्य तत्त्व माना गया है । समत्व की साधना के दो पक्ष हैं बाह्य रूप में वह सावद्य ( हिंसक ) प्रवृत्तियों का त्याग है; तो आन्तरिक रूप में वह सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव ̈` (सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति) तथा सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा - प्रशंसा में समभाव रखना है। लेकिन दोनों पक्षों से भी ऊपर वह विशुद्ध रूप में आत्मरमण या आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्न है। सम् का अर्थ समताभाव और अय का अर्थ है गमन । जिसके द्वारा पर परिणति से आत्म-परिणति की
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रखना;
५. ध्यान का अभ्यास करके प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रीति से समझने के लिये विवेक शक्ति का विकास करना; और ६. त्यागवृत्ति द्वारा सन्तोष व सहनशीलता बढ़ाना । गुणों में वृद्धि तथा प्राप्त गुणों की शुद्धि तथा उनसे स्खलित न होने के लिये आवश्यक क्रिया का आचरण अत्यन्त उपयोगी है । ७७
यही वह प्रक्रिया है जिससे जीवन में समता की उपलब्धि होती
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'ज्ञानसार' क्रियाष्टक ५-७ ।
७८ 'विरदो सव्वसावज्जे तिगुत्तो पहिदिदिओ ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।। १२५ ।।'
-नियमसार १२५ (उद्धृत श्रमण सूत्र पृ. ६३) । आवश्यकनियुक्ति १०३२ ।
उत्तराध्ययनसूत्र १६/६०-६१ ।
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