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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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ओर जाया जाता है, वही सामायिक है। सामायिक समभाव की साधना है। राग-द्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थ रहना ही सामायिक है।" सामायिक कोई रूढ़ क्रिया नहीं, वह तो समत्व वृत्ति रूप पावन आत्म गंगा में अवगाहन है, जो समग्र राग-द्वेष जन्य कलुष को आत्मा से अलग कर मानव को विशुद्ध बनाती है। संक्षेप में सामायिक एक ओर चित्तवृत्ति का समत्व है, तो दूसरी ओर पाप विरति है।
यह सामायिक समस्त धर्म-क्रियाओं, साधनाओं, उपासनाओं एवं सदाचरणों के लिए भी उसी प्रकार आधारभूत है, जिस प्रकार कि आकाश और पृथ्वी चराचर प्राणियों के लिए आधारभूत है।
नाम, स्थापना, द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव युक्त निम्न ६ भेदों से साम्य भावरूप सामायिक धारण की जाती है : १. नाम सामायिक : सामायिकधारी आत्मा शुभाशुभ नामों के
प्रयोग पर स्तुति, निन्दा आदि नहीं करता। वह यही विचारता
है कि आत्मा तो शब्द की सीमा से अतीत है। २. स्थापना सामायिक : असली वस्तु की प्रतिकृति, मूर्ति या चित्र
हो, उसे देखकर राग-द्वेष नहीं करना - वह स्थापना सामायिक
३. द्रव्य सामायिक : चाहे स्वर्ण हो या मिट्टी हो, इन सभी पदार्थों
में समदर्शी भाव रखना द्रव्य सामायिक है। आत्मा की दृष्टि से तो स्वर्ण भी मिट्टी है और मिट्टी भी मिट्टी ही है। हीरा और
कंकर दोनों ही जड़ पदार्थ की दृष्टि से समान ही हैं। ४. क्षेत्र सामायिक : चाहे कोई सुन्दर बगीचा हो या काँटों से
भरी हुई बंजर भूमि - दोनों में समभाव रखना और यही विचार करना कि मेरा निवास स्थान मेरी आत्मा ही है। वह
क्षेत्र सामायिक है। ५. काल सामायिक : चाहे वर्षा हो, शीत हो, गर्मी हो अथवा
अनुकूल वायु से सुहावनी वसन्त ऋतु हो या भयंकर आंधी हो - ये सब पुद्गल के विकार हैं। मेरा तो इन सब से स्पर्श नहीं हो सकता। मैं अमूर्त हूँ, अरूप हूँ। इस प्रकार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखना - वह काल
" गोम्मटसार जीवकाण्ड (टीका) ३६८ ।
श्रमणसूत्र पृ. ७०-७२ ।
-अमरमुनि ।
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