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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
दोनों के लिये आवश्यक माने गये हैं । ७४ पर्यायवाची नाम भी बताये गए हैं। वे इस प्रकार हैं :
१. 'अवश्य क्रियते आवश्यकम् ।'
आवश्यक कहलाते हैं ।
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२. 'अवश्यकरणीय ।' मुमुक्षु साधकों के द्वारा नियमेन अनुष्ठेय होने के कारण अवश्य करणीय है ।
३. 'ध्रुवनिग्रह' - अनादि होने के कारण कर्मों को ध्रुव कहते हैं । कर्मों के फल जन्म - जरा - मरणादि भी अनादि हैं । अतः वे भी ध्रुव कहलाते हैं। जो अनादि कर्म और कर्म-फल स्वरूप संसार का निग्रह करता है, वह ध्रुवनिग्रह है ।
४. 'विशोधि ।'
कर्म से मलिन आत्मा की विशुद्धि हेतु होने से आवश्यक विशोधि कहलाता है ।
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५. 'अध्ययन षट्कवर्ग ।'
आवश्यकसूत्र के समायिकादि छः अध्ययन हैं। अतः वह अध्ययन षट्रकवर्ग है ।
६. 'न्याय ।' अभीष्ट अर्थ की सिद्धि का सम्यक् उपाय होने से अथवा आत्मा और कर्म के अनादिकालीन सम्बन्ध का
अपनयन करने के कारण ही वह न्याय कहलाता है ।
७. 'आराधना ।'
८.
आराध्य मोक्ष का हेतु होने से आराधना है । 'मार्ग ।' मोक्षपुर का प्रापक होने से मार्ग है। मार्ग का अर्थ उपाय भी है।७५
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उसमें आवश्यक के
अवश्य करने योग्य कार्य
षडावश्यकों की महत्ता स्पष्ट करते हुए पण्डित सुखलालजी भी कहते हैं कि जिन तत्त्वों के होने से ही मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों के जीवन से उच्च समझा जाता है और अन्त में विकास की पराकाष्ठा तक पहुँच जाता है, वे तत्त्व ये हैं
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१.
समभाव अर्थात् शुद्ध श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का सम्मिश्रण;
२. जीवन को विशुद्ध बनाने के लिये वीतराग परमात्मा का
गुणगान;
३. गुणवानों का बहुमान एवं विनय करना;
४. कर्त्तव्य की स्मृति तथा कर्त्तव्य पालन में होने वाली गलतियों का
‘आवस्सयं अवस्स-करणिज्जंध्रुवनिग्गहो विसोही य ।
अज्झयण-छक्कवग्गो, नाओ आराहण मग्गो || १ /२८ ।। । ' - अनुयोगद्वारसूत्र (उद्धृत् श्रमणसूत्र ) । ७५ 'जदवस्सं कायव्वं तेणावस्सयमिदं गुणाणं वा ।
आवासयमाहरो आ मज्जायाभिविहिवाई ।। १७२ ।। '
विशेषावश्यकभाष्य |
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' दर्शन और चिन्तन' खण्ड २, पृ. १८३-८४ ।
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