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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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किया गया है :
साम : 'स्व' आत्मा की तरह 'पर' को दुःख नहीं देना। सम : राग-द्वेष जनक प्रसंगों में भी मध्यस्थ रहना अर्थात् सभी के
साथ आत्मा के तुल्य व्यवहार करना। सम्म : एकरूपता का व्यवहार।
ये तीनों आत्मा के अतीन्द्रिय परिणाम हैं, केवल अनुभवगम्य हैं। साम, सम और सम्म परिणामों को (सूत के धागे में मोती पिरोने की तरह) आत्मा में एकीभाव से पिरोकर उन भावों को प्रकट करना सामायिक है।
षडावश्यक और समत्वयोग की साधना
समत्वयोग की साधना को जैन धर्म में षडावश्यकों की साधना के रूप में माना जा सकता है। वेदों में संध्या, मुसलमानों के लिये नमाज और योगियों के अनुसार प्राणायाम की तरह ही जैनियों के लिये षडावश्यकों की साधना अपेक्षित है। यह इतनी व्यापक है कि इसमें यम-नियम अथवा ज्ञान, भक्ति और कर्म जैसे साधना के सभी आयाम समाविष्ट हो जाते हैं। विषमता में समता, अव्यवस्था में व्यवस्था और जीवन में मैत्री तथा करुणा की स्थापना करने के लिये षडावश्यकों की साधना आवश्यक है। षडावश्यकों की साधना वस्तुतः सामायिक या समत्वयोग की साधना ही है।' आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है :७२
"सामाइयाइया वा वयजीवानि काय भावणा पढमं।
एसो धम्मो वाओ जिणेहिं सव्वेहिं उवइट्ठो।।' अर्थात् जिनोपदीय धर्म में सामायिक का स्थान सर्वप्रथम है।
७१ (क) सामायिकसूत्र. ३३ । (ख) 'समता वंदन युति करन, पडकौना सज्झा व ।
काउस्सग मुद्रा घरन, षडावसिक ये भवा' ।।' ' 'सामाइयाइया वा वयजीवाणिकाय भावना पढ़मं ।
एसो धम्मोवाओ सव्वेहिं उवइट्ठो ।।'
समयसार नाटक !
आवश्यकनियुक्ति २७ ।
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