________________
१७२
जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
तस्य आयः = लाभः समाय = स एव सामायिकम् सावधयोग परिहार रूपं ।' अर्थात् पापकार्यों का परित्याग और निरवद्ययोग अर्थात् अहिंसा, दया, समता, आदि कार्यों का आचरण करना सामायिक है। इसी प्रकार जीवात्मा का शुद्ध स्वभाव 'सम्' कहलाता है। सम की जिसके द्वारा प्राप्ति हो, वह सामायिक है। 'सम्यक् शब्दार्थः समशब्दः सम्यगयनं वर्तनं समयः स एव सामायिकम्।' 'सम' शब्द का अर्थ अच्छा है और अयन का अर्थ आचरण है अर्थात् जिसका आचरण श्रेष्ठ हो, वही
सामायिक है, समत्वयोग है। ६ 'समये कर्त्तव्यम् सामायिकम्।' समय पर जो उत्कृष्ट साधना की
जाती है, वह सामायिक है। उचित समय पर करने योग्य आवश्यक कर्त्तव्य को सामायिक कहा जाता है। यह अन्तिम व्युत्पत्ति हमें प्रति समय सामायिक या समता में जीने की प्रेरणा देती है। समय का एक अर्थ सिद्धान्त भी है अर्थात् सिद्धान्त या आगम में जिसे कर्त्तव्य कहा है, उसका पालन करना
सामायिक है। इस समत्व की साधना में कोई जाति, मत या पन्थ का भेद नहीं है। इसकी साधना सभी कर सकते हैं। धर्म विशेष या किसी वस्त्रभूषा विशेष से भी इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि व्यक्ति चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, स्त्री हो या पुरुष, जैन हो या अजैन समत्ववृत्ति की आराधना कर सकता है। आवश्यकनियुक्ति में सामायिक शब्द के साम, सम और सम्म ये तीन अर्थ मिलते हैं :
'साम समं च सम्मं मिइ, सामाइअस्स एगट्ठा।
महुर परिणाम सामं, समं तुला, सम्मं खीर खंड जुई।।' साम अर्थात् शान्ति, नम्रता, मधुरता, समस्त जीवों के प्रति मैत्री और आत्मतुल्यता का भाव। सम अर्थात् सम्यक्त्व, मध्यस्थता, समता, प्रशमता और राग-द्वेष से रहित अवस्था अथवा तुला (तराजु) जैसा सम परिणाम। सम्म अर्थात् सर्वत्र तुल्य व्यवहार, दूध
और शक्कर जैसा आत्मा के साथ एक रूप हो जाने का परिणाम। निरुक्त विधि में इसी साम, सम, सम्म का अर्थ इस प्रकार से
७० भगवतीसूत्र २५/७/२१-२३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org