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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
सुखःदुःख,
लाभ-अलाभ,
मान-अपमान आदि
अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थितियों में समभाव रखना है । ६६ यह चित्तवृत्तियों के अविचलन की अवस्था है । बाह्य व्यवहार की दृष्टि से सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि और आध्यात्मिक आधार पर अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में राग-द्वेष से ऊपर उठकर चित्तवृत्ति का अविचलित या तनावमुक्त रहना ही समत्वयोग या सामायिक है । वस्तुतः यह आत्मरमण या साक्षात्कार की स्थिति है और पापकर्म से विरति है । सामायिक की साधना समत्ववृत्ति रूप पावन गंगा में अवगाहन करना है ।
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सामायिक का मूल शब्द सम है, उस सम या समत्व की प्राप्ति ही सामायिक है
सामायिक शब्द के विभिन्न अर्थ
लाभ ।
सम+आय =
संस्कृत भाषा में 'आय' का अर्थ है समाय अर्थात् जिससे सम् का लाभ हो वह समाय है । इसमें 'इक' प्रत्यय जोड़ने से प्रथम वर्ण 'स' में रहा 'अ' स्वर दीर्घ हो जाता है ।
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सभी आत्माओं के प्रति समभाव या तुल्यता का भाव ही सामायिक अथवा समत्व है ।
इस प्रकार सम् + आय+इक सामायिक शब्द निष्पन्न होता है अर्थात् जिससे सम् का लाभ होता है, वह सामायिक है । 'समाय' या 'सामाय' पद के साथ 'इकण' प्रत्यय लगाने से भी सामायिक शब्द की निष्पत्ति मानी जाती है । समय अर्थात् काल, समय + इक सामायिक जो कार्य निश्चित समय पर होता है, उसे सामायिक कहा जाता है । 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'गति' अर्थवाली 'इन्' धातु से 'समय' शब्द बनता है। सम् का अर्थ एकीभाव है और अय का अर्थ गमन है। जो एकीभाव के द्वारा बाह्य परिणति से वापस मुड़कर आत्मा की और गमन करता है, उसे समय कहते हैं । समय का भाव सामायिक होता है ।
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६६ 'लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा ।
समो निन्दापसंसासु, तहा माणावमाणओ ।। ६१ ।। ' सर्वार्थसिद्धि ७/११ ।
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- उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १६ ।
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