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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
जैन विचार में स्तुति के दो रूप माने गये हैं - द्रव्य और भाव।
सात्त्विक वस्तुओं द्वारा तीर्थंकर की प्रतिमा की पूजा करना द्रव्यस्तव है और भगवान के गुणों का स्मरण करना भावस्तव है। जैन धर्म के अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय द्रव्यस्तव के महत्त्व को स्वीकार नहीं करते हैं। वे केवल भावस्तव को ही स्वीकार करते हैं। किन्तु द्रव्यस्तव के पीछे भी मूलतः यही भावना रही है कि उसके माध्यम से व्यक्ति अपने भावों की विशुद्धि करता है। अतः भावस्तव की मुख्यता तो दोनों को ही स्वीकार है। इसी भावविशुद्धि से समत्वयोग की साधना सफल होती है।
३. वन्दन :
तीसरा आवश्यक वन्दन है। साधनामार्ग के पथ-प्रदर्शक गुरू को विनय करना वन्दन है। वन्दन किसे किया जाये? आचार्य भद्रबाहु ने स्पष्ट रूप से यह निर्देश दिया है कि गुणहीन एवं दुराचारी अवंद्य व्यक्ति को वन्दन करने से न तो कर्मों की निर्जरा होती है न कीर्ति ही, प्रत्युत् असंयम और दुराचार का अनुमोदन करने से कर्मों का बन्ध होता है। ऐसा वन्दन व्यर्थ का काय-क्लेश है।' आचार्य ने यह भी निर्देश दिया है कि जो व्यक्ति अपने से श्रेष्ठजनों द्वारा वन्दन करवाता है, वह असंयम में वृद्धि करके अपना अधःपतन करता है।६२ जैन विचारणा के अनुसार जो चारित्र एवं गुणों से सम्पन्न हैं, वे ही वन्दनीय हैं। द्रव्य (बाह्य) और भाव (आन्तर) दोनों दृष्टियों से शुद्ध संयमी पुरुष ही वन्दनीय हैं। आचार्य भद्रबाहु ने यह भी निर्देश दिया है कि जिस प्रकार वही सिक्का ग्राह्य होता है, जिसकी धातु भी शुद्ध हो और मुद्रांकन भी ठीक हो। उसी प्रकार द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से शुद्ध व्यक्ति
-आवश्यकनियुक्ति ।
' 'पासत्थाई वंदमाणस्स, नेवकिति न निज्जरा होई ।। ___ काय-किलेसं एमेव कुण ईतह कम्मबंधं च ।। ११०८ ।।'
'जे बंभचेर-भट्ठा पाए उड्डति बंभयारीणं । ते होंति कुंट मुंटा, बोही य सुदुल्लहातेसिं ।। ११०६ ।।'
६२
-आवश्यकनियुक्ति ।
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