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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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में ही करता है।
आठवें गुणस्थान में क्षपक श्रेणी वाला साधक मोहनीयकर्म का क्षय करते हुए नौवें एवं दसवें गुणस्थान से होता हुआ सीधे बारहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है। वह आत्म-स्वरूप से अधःपतन तो नहीं करता, बल्कि आगे विकास करता हुआ पूर्ण समत्व की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
आठवें गुणस्थान में वर्तमान जीव निम्न पांच क्रियाएं करता है: १. स्थितिघात : कर्मों की दीर्घकालीन स्थिति को अपरिवर्तनाकरण
के द्वारा कम कर देने का स्थितिघात कहते है। रसघात : बन्धे हुए कर्मों के फल देने की तीव्र शक्ति को
अपवर्तनाकरण के द्वारा अल्प कर देना रसघात है। ३. गुणश्रेणी : जिन कर्मदलिकों का स्थितिघात किया गया था, उन्हें
समय के क्रम में अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर देना गुणश्रेणी है। ४. गुणसंक्रमण : पहले बन्धी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में
बन्ध रही शुभ प्रकृतियों में स्थानान्तरित कर देना अर्थात्
परिणत कर देना गुणसंक्रमण है। . ५. अपूर्वस्थितिबन्ध : पूर्व की अपेक्षा अत्यन्त अल्प स्थिति के कर्मों
का बन्ध करना अपूर्वस्थितिबन्ध है। आत्मा इन प्रक्रियाओं के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मदलिकों का तीव्र वेग से क्षय या उपशम करने लगती है। यह प्रक्रिया अपूर्व होने से इस गुणस्थान का नाम
भी अपूर्वकरण गुणस्थान है। यद्यपि स्थितिघात आदि घटनाएँ अन्य गुणस्थानों में भी घटित होती हैं, फिर भी इस गुणस्थान में वे अपूर्व होती हैं, क्योंकि पूर्व की अपेक्षा से अधिक शुद्धि होती है। इस अवस्था में साधक मुक्ति को अपना अधिकार मान लेता है। गुणस्थान सिद्धान्त में प्रथम सात गुणस्थानों में कर्म की प्रधानता होती है और अन्तिम सात गुणस्थानों अर्थात् आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक पुरुषार्थ का प्राधान्य है। दूसरे शब्दों में पूर्व के सात गुणस्थानों में आत्मा पर कर्म शासन करते हैं, लेकिन आठवें गुणस्थान से आत्मा स्वयं कर्मों
५० गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण पृ. ६२ ।
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