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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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परिणामों में सदृशता ही होती है।५३ परिणामों के द्वारा कर्मों का विशेष क्षय होता है। नौवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव उपशमक और क्षपक दो प्रकार के होते हैं। उपशमक - जो चारित्र मोहनीयकर्म का उपशमन करते हैं। क्षपक - जो चारित्र मोहनीयकर्म का क्षपण (क्षय) करते हैं। जब साधक मोहनीयकर्म का उपशमन या क्षय करता है, तो इसके साथ अन्य कर्मों का उपशमन और क्षय स्वाभाविक रूप से होता है।
१०. सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान
इस गुणस्थान का नाम है सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान। सम्पराय का अर्थ है लोभ । इस गुणस्थान में मात्र सूक्ष्म लोभ शेष रह जाता है।५ जैन पारिभाषिक शब्दों में मोहनीयकर्म की अट्ठाईस कर्म प्रवृत्तियों में से सत्ताईस कर्म प्रकृतियों का क्षय या उपशमन हो जाने पर मात्र संज्वलन लोभ शेष रहता है, तब साधक इस गुणस्थान में पहुँचता है। इस गुणस्थान को सूक्ष्म लोभ शेष रहने के कारण ही इसका नाम सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान है। पंचसंग्रह में बताया गया है कि जिस प्रकार धुले हुए गुलाबी रंग के कपड़े में सूक्ष्म रूप में लालिमा की आभा रह जाती है, उसी प्रकार इस गुणस्थानवी जीव संज्वलन लोभ के सूक्ष्म खण्डों का वेदन करता है ! ६ इस गूणस्थान में उपशम और क्षपक श्रेणी वाले दोनों प्रकार के जीव होते हैं। उपशम श्रेणी वाला जीव सूक्ष्म लोभ को उपशमित करके ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है और क्षपक श्रेणी वाला
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५३ 'जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष', भाग २, पृ. १४ । 'सम्प्राय कषायः
-तत्त्वार्थवार्तिका ६/१/२१ । सूक्ष्मसम्प्राय सूक्ष्मसंज्वलन लोभ : (क) गोम्मटसार टीका कर्मकाण्ड जीव प्रबोधिनी कोशववर्णि गा. ३३६१;
(ख) संस्कृत पंचसंग्रह १/४३-४४ ।। ५६ (क) 'सूक्ष्मसम्प्राय सूक्ष्मसंज्वलन लोभः, शमं यत्र प्रपद्यते ।
क्षयं वा संयतः सूक्ष्मः, साम्परायः स कथ्यते ।। ४३ ।। कौसुम्मोन्तर्गतो रागो, यथावस्त्रे तिष्ठते ।
सूक्ष्म लोभगुणे लोभः शोध्यमानस्तथा तनुः ।। ४४ ।।' -संस्कृत पंचसंग्रह १ । (ख) 'पुव्वापुव्वष्फड्डय बादर सुहुमंगयकिट्टियणुभागा ।
हीणकमाणंतगुणेणघरादु वरं च हेट्टस्स ।। ५६ ।।' -गोम्मटसार (जीवकाण्ड)।
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