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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
पर शासन करती है। सातवें गुणस्थान तक आत्मा वासनाओं एवं कषायों से युक्त होने के कारण वह स्वशक्ति का उपयोग नहीं कर सकती, लेकिन इस गुणस्थान में आते ही स्थिति में परिवर्तन हो जाता है। इस गुणस्थान में आत्मा अपने समत्व से युक्त होकर क्रम से उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास करती है।
६. अनिवृत्तिकरण (बादर-सम्पराय गुणस्थान)
स्थूल कषायों से निवृत्ति के अध्यवसाय को अनिवृत्ति बादर गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान में निर्मल अध्यवसायों से बादर कषायों का या तो नाश हो जाता है या उनका उपशमन हो जाता है।
इस गुणस्थान के अन्त में क्रोध, मान, माया और बादर लोभ तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद इन सात कर्म प्रवृत्तियों का क्षय या उपशमन होता है। परिणामतः व्यक्ति के अध्यवसाय निर्मल हो जाते हैं। यहाँ निष्कषाय और निर्वेद अवस्था प्राप्त होती है। इस गुणस्थान में एक साथ आरोहण करनेवाले सभी साधकों के समान परिणाम होते हैं। जबकि आठवें गुणस्थान तक साधकों के परिणामों में विशुद्धि की अपेक्षा से तरतमता होती है। इसमें प्रारम्भ में सूक्ष्म लोभ तथा हास्य, रति, अरति, भय, शोक और घृणा के भाव शेष रहते हैं। फिर भी पूर्ववर्ती अवस्थाओं की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में कषायों का अंश न्यून होता जाता है। जैसे-जैसे कषाय का अंश कम होता जाता है, वैसे-वैसे परिणामों में प्रति समय विशुद्धता बढ़ती जाती है और अन्त में हास्यषटक का भी क्षय हो जाता है। इस गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त परिमाण होती है। एक अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतने ही अध्यवसाय इस गुणस्थान के होते हैं। क्योंकि सभी जीव समसमयवर्ती शुद्धिवाले होते हैं। इसमें जितना काल है, उतने ही उसके परिणाम हैं। इसलिए प्रत्येक समय एक ही परिणाम होते हैं। अतः भिन्न समयवर्ती परिणामों में विसदृशता और एक समयवर्ती
-जयन्तसेनसूरि ।
५५ 'आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं और पूर्णता' पृ. ४४ । ५२ धवला ६११, भा. १/८, सूत्र ४, पृ. २२१ ।
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