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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
सूक्ष्म लोभ का क्षय करके सीधा बारहवें गुणस्थान में चला जाता है। यह अप्रतिपाती भाववाला होने के कारण इसका पतन नहीं होता है। इस गुणस्थान की जघन्य स्थिति एक समय की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है।
११. उपशान्त मोह गुणस्थान
इस गुणस्थान में जब साधक की मोहनीयकर्म की सभी प्रकृतियाँ उपशान्त रहती हैं, तब साधक वीतराग समान हो जाता है। यहाँ मोहनीयकर्म की सत्ता तो रहती है, परन्तु उनका उदय नहीं होता। मोहनीयकर्म के उपशान्त होने से वीतरागता होती है, किन्तु ज्ञान, दर्शन आदि आत्मगुणों को आवृत्त करने वाले गुणों का उदय बना रहता है। इस कारण वीतरागता होने पर भी वह अल्पज्ञ या छद्मस्थ ही कहा जाता है। चूंकि इस गुणस्थानवर्ती आत्माएँ उपशमश्रेणी से आगे बढ़ती हैं, अतः मोहनीयकर्म का पुनः उदय होने पर वे वीतरागदशा से पतित हो जाती हैं। जैसे राख में दबी हुई अग्नि पर पवन के लगते ही राख हट जाती है और अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसी प्रकार दमित वासनाएँ संयोग पाकर पुनः प्रज्वलित होती हैं और साधक इस गुणस्थान से गिर जाता है। इस गुणस्थान में शुक्लध्यान से मोहनीयकर्म अन्तर्मुहूर्त के लिये उपशान्त करके आत्मा वीतरागता, निर्मलता और पवित्रता को प्राप्त कर लेती है। इसी कारण इसे उपशान्त मोह या उपशान्त कषाय भी कहते हैं। क्षपक श्रेणी से आरोहण किये बिना साधक को मोक्ष उपलब्ध नहीं हो सकता। परन्तु ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव नियम से उपशम श्रेणी से आरोहण करनेवाला होता है, अतः उसका पतन स्वाभाविक है। इस गुणस्थान की काल-मर्यादा जघन्य से एक समय की ओर उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त परिमाण की होती है। इस गुणस्थान का समय पूर्ण होने से पूर्व ही यदि व्यक्ति मृत्यु को
५७ 'गुणस्थानकमारोह' श्लोक ७३ । ५८ (क) 'अधोमले यथा नीते, कतके नाम्भेऽस्तु निर्मलम् ।
उपरिष्टात्तथा शान्त, मोहो ध्यानेन मोहने ।। (ख) 'कदकफलजुदजलं वा सरए सरवाणियं व णिम्मलए ।
सयलोवसंतमोहो उवसंतकषायओ होदि ।। ६१ ।।'
-संस्कृत पंचसंग्रह १/४७ ।
-गोम्मटसार (जीवकांड)।
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