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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
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की निरर्थकता सिद्ध होगी। स्वास्थ्य हमारा स्वभाव है; लेकिन हममें बीमारी या विकृति की सम्भावना ही नहीं होती, ऐसा नहीं कहा जा सकता। साधना का लक्ष्य वस्तुतः स्वभाव में आई हुई विकृतियों को समाप्त करना है। इसलिये व्यवहार के स्तर पर समत्वयोग साधक वह व्यक्ति है, जिसमें विकार रहे हुए हैं। वस्तुतः विभाव दशा में रही हुई आत्मा ही साधक है; क्योंकि साधना का लक्ष्य विभाव से स्वभाव की ओर जाना है। अतः व्यवहार के स्तर पर हम यह कह सकते हैं कि जो आत्मा विभाव दशा में रही हुई है तथा इच्छाओं
और आकाँक्षाओं की तनावपूर्ण स्थिति में है; वही साधक है और उसे ही अपनी साधना के द्वारा उस समत्वरूपी साध्य को उपलब्ध करना है। इस प्रकार निश्चयदृष्टि से समत्वयोग के साध्य और साधक में अभेद है। किन्तु व्यवहार के स्तर पर उन दोनों में भेद है; क्योंकि यदि दोनों में भेद स्वीकार नहीं करेंगे, तो साधनामार्ग की कोई अपेक्षा ही न रह जायेगी।
जहाँ तक समत्व के साधनामार्ग का प्रश्न है, जैनदर्शन में उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र के रूप में स्वीकार किया गया है। समत्व की प्राप्ति के लिये सर्वप्रथम हमें अपने दृष्टिकोण को शुद्ध करना होता है। भौतिकवादी जीवनदृष्टि अथवा पदार्थों में आसक्ति जब तक रहेगी, तब तक समत्व की उपलब्धि सम्भव नहीं है। समत्व की उपलब्धि के लिये निश्चय से यह जानना आवश्यक है कि बाह्य पदार्थ न मेरे हैं, न मैं उनका हूँ। अतः बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि रखना और उनकी आकांक्षा रखना सम्यक जीवनदृष्टि नहीं है। सम्यक् जीवनदृष्टि का विकास निराकांक्षा और निर्ममत्व की स्थिति में ही सम्भव है - यही सम्यग्दृष्टि है। समत्व की उपलब्धि के लिये सम्यग्दृष्टि का विकास आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि समत्व की साधना का प्रथम चरण है। समत्व की साधना का दूसरा चरण सम्यग्ज्ञान है। इच्छाओं और आकांक्षाओं का विकास आत्म-अनात्म के सम्यक् विवेक के अभाव में ही होता है। इच्छाओं का जन्म 'पर' में आत्मबुद्धि या राग भावना के कारण होता है। अतः साधना के दूसरे चरण में यह जानना आवश्यक है कि 'स्व' और 'पर' क्या है? 'स्व' और 'पर' के भेद-विज्ञान के बिना समत्व में अवस्थिति सम्भव नहीं है। 'स्व' और 'पर' के
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