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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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सम्बन्ध में सम्यक् समझ उत्पन्न होने पर ही हम 'पर' से विमख होकर 'स्व' में अवस्थित हो सकते हैं और तभी हमारी चेतना तनाव से मुक्त रह सकती है। इस प्रकार समत्वयोग की साधना का दूसरा चरण 'स्व' और 'पर' की सम्यक् समझ है; जिसे सम्यग्ज्ञान भी कहा जाता है।
सम्यग्दृष्टि और समयग्ज्ञान होने पर भी जब तक व्यक्ति का जीवन व्यवहार परिशुद्ध नहीं होता है, तब तक जीवन में समभाव की उपलब्धि सम्भव नहीं होती। समभाव की उपलब्धि के लिये इच्छाओं और आकांक्षाओं के घेरे को तोड़ना आवश्यक है। 'पर' को पर समझ लेना यह सम्यग्ज्ञान है। लेकिन 'पर' में रही हुई आसक्ति को समाप्त कर देना यह सम्यक्चारित्र है। साधना की पूर्णता सम्यक्चारित्र में ही है। सम्यकुचारित्र, सम्यग्दष्टि और सम्यग्ज्ञान के आधार पर जीवन व्यवहार के परिमार्जन का प्रयत्न है। सम्यग्ज्ञान समत्व को जानना है और सम्यकुचारित्र समत्व को जीना है। समत्व केवल जानने की वस्तु नहीं, वह जीने की वस्तु है। किन्तु जानना और जीना, यह साधक आत्मा से भिन्न होकर अपना अस्तित्त्व नहीं रखते। इसलिये जानना और जीना यह दोनों आत्मा की अवस्थाएँ हैं। जैनाचार्यों ने यह माना है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का आत्मा से तादात्म्य है, क्योंकि ये तीनों ही आत्मा की ही पर्यायावस्था की सूचक हैं। आत्मा से पृथक न तो ज्ञान का अस्तित्व है; न श्रद्धा की सत्ता है और न चारित्र की सम्भावना है।
जैन धर्म में साध्य (मोक्ष) और साधक में अभेद ही माना गया है। समयसारटीका में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं कि परद्रव्य का परिहार और शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि ही सिद्धि है। आचार्य हेमचन्द्र साध्य और साधक में अभेद बताते हुए कहते हैं कि कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और इन पर विजय पाना ही मोक्ष है। मुनि न्यायविजय भी लिखते हैं कि आत्मा ही संसार है और आत्मा ही मोक्ष है। जहाँ तक आत्मा
समयसार टीका ३०५ । ५ योगसूत्र १-३ ।
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