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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
सम्भवतः स्नायविक जीवन की प्रमुख प्रवृत्ति यही है कि वह आन्तरिक उद्दीपकों के तनाव को समाप्त करने और साम्यावस्था को बनाये रखने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता है ।"" एक लघु कीट भी अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयास करता है | चेतन की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह सदैव समत्वकेन्द्र की ओर बढ़ना चाहता है । समत्व के हेतु प्रयास करना जीवन का सार तत्त्व है । न केवल आध्यात्मिक, अपितु मनोवैज्ञानिक एवं जैविक स्तर पर भी समत्व जीवन का लक्षण सिद्ध होता है ।
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समत्व जीवन का या आत्मा का स्वभाव या स्वलक्षण है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि आत्मा में विभाव या विचलन की स्थिति नहीं है । संसार के प्राणियों में समत्व से विचलन पाया जाता है । समत्व से विचलन आत्मा की विभावदशा या वैभाविक अवस्था है। संसारी आत्मा इससे ग्रसित रहती है । विभाव दशा में स्थित सांसारिक आत्मा को ही साधक कहा गया है ।
जैनदर्शन में मुक्ति को अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से युक्त बताया गया है । मुक्तावस्था में आत्मा/व्यक्ति इन चारों से युक्त रहते हैं । किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि संसारदशा में आत्मा में इनका अभाव होता है । संसारदशा में ये आत्मा की शक्तियाँ अव्यक्त होती हैं और मुक्तावस्था में व्यक्त होती हैं । मुक्ति का अर्थ चेतना पर आये हुए कर्मों के आवरण को समाप्त करना ही है; ताकि आत्मा में रहे हुए अनन्तचतुष्टय अभिव्यक्त हो सकें। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन में साधक और साध्य में तात्त्विक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। जिनमें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य अनभिव्यक्त अवस्था में है, किन्तु जो इन्हें प्रकट करने के लिये प्रयत्नशील हैं, वे साधक हैं और जिनमें ये गुण प्रकट हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं । इसी प्रकार जैनदर्शन में उसी आत्मा को साधक कहा जाता है, जिसमें अभी वीतरागता या सर्वज्ञता के
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'Beyond the pleasure principle-5' - Freud.
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- उद्धृत अध्यात्मयोग और चित्त विकलन पृ: २४६ ।
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