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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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२. अनादि सान्त : जो जीव अनादि कालीन मिथ्यादर्शन ग्रन्थी का
भेदन करके सम्यग्दृष्टि बन सकता है। वह जीव भव्य कहलाता है - उसका मिथ्यात्व अनादि सान्त होता है।
३. सादि सान्त : एक बार सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद जो जीव
पुनः मिथ्यात्वी हो जाता है अर्थात् सम्यक्त्व से पतित होकर मिथ्यात्व गुणस्थान में आता है, उसकी अपेक्षा से मिथ्यात्व सादि सान्त है। क्योंकि जिस जीव ने एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति कर ली है, वह निश्चित ही मोक्षगामी है। जिस जीव के मिथ्यात्व की आदि है, उसके मिथ्यात्व का अन्त भी अवश्यम्भावी है। तीसरे भेद के अनुसार मिथ्यात्व गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और देशोनअर्धपुद्गलपरावर्त है।" मिथ्यात्वदशा में जब आत्मा के सभी कर्मों की स्थिति अन्तः कोटा-कोटि सागरोपम की रह जाती है, तो वह इसी गुणस्थान के अन्तिम चरण में यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृतिकरण करके ग्रन्थी-भेद करता हुई उसमें सफल होने पर विकास के सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करती है। मिथ्यात्व का क्षय या उपशम इसी अवस्था में होता है। अतः इसे भी गुणस्थान कहा गया है।
२. सास्वादन गुणस्थान
जिसमें सम्यक्त्व का आस्वादन अर्थात् स्वाद मात्र रह जाता है, उसको सास्वादन गुणस्थान कहते हैं। जैसे खीर खाने के पश्चात् जब उसका वमन होता है, तो उस खीर का कुछ स्वाद अनुभव में आता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व से पतित जीव जब मिथ्यात्व की ओर जाता है, तो वह कुछ समय तक सम्यक्त्व के आस्वादन का अनुभव करता है। इसलिये इसे सास्वादन गुणस्थान कहते हैं।३२
३० 'अभव्याश्रिता मिथ्यात्वे, अनाद्यन्नता स्थितिर्भवेत् । सा भव्याश्रिता मिथ्यात्वे, अनादिसान्ता पुनर्मता ।।'
-गुणस्थान क्रमारोह । गुणस्थान क्रमारोह । 'सम्मत्तरयण-पव्वयसिहरादो मिच्छभूमि समहिमुहो । णासिय सम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयब्बो ।।'
-गोम्मटसार जीवकाण्ड २०; समयसार नाटक अण् १४ छंद २० ।
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