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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
नहीं है। वह केवल खाना, पीना और मौज उड़ाना, इसमें ही मस्त बना रहता है। अनाभोग मिथ्यात्व में व्यक्त और अव्यक्त
दोनों मिथ्यात्व विद्यमान रहते हैं। आचार्य अमितगति ने श्रावकाचार में कहा है कि मिथ्यादृष्टि उस सर्प के समान है जो दूध पीकर भी पुनः विष को उगालता है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जिनवाणी को भी सुनता है, आगम का अध्ययन भी करता है; पर अपने मिथ्यात्व को नहीं छोड़ता है।२६ प्रश्न होता है कि मिथ्यात्व को गुणस्थान क्यों माना गया है? मिथ्यात्व को गुणस्थान इसीलिये माना है कि जैसे सघन बादलों के आच्छादित होने पर सूर्य की प्रभा सम्पूर्णतः नहीं छिपती है, वैसे ही मिथ्यात्व मोहनीयकर्म का उदय हो जाने पर जीव का दृष्टिगुण सम्पूर्णतः आच्छादित नहीं होता है, बल्कि आंशिक रूप से अनावरित रहता है। यदि ऐसा न माना जाय तो निगोदिया जीव को अजीव कहा जायेगा। आचार्य हरिभद्रसूरि ने मार्गाभिमुख अवस्था के चार विभाग किये हैं : १. मित्रा; २. तारा; ३. बला; और ४. दीपा।
मिथ्यात्व के कारण अध्यवसायों में संक्लेश बना रहता है। इस सम्बन्ध में महोपाध्याय श्री यशोविजयजी लिखते हैं :
___ 'पर परणति कर आपणी जाने, वरते आरत ध्याने।
साधकबाधकता नवि जाने, ते मिथ्यागुण ठाणे ।।२६ काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व के तीन भेद मिलते हैं : १. अनादि अनन्त; २. अनादि सान्त; और ३. सादि सान्त।
१. अनादि अनन्त : अभव्य जीव अथवा जातिभव्य (जो जीव
कभी मुक्त नहीं होते)। अभव्य जीवों का मिथ्यात्व अनादि अनन्त है।
२६ 'पठन्नपिवचो जैनं मिथ्यात्वं नैव मुंचति । __कुदृष्टिः पडत्पन्नगो दुग्धं पिवन्नपि महाविषम् ।।' ___-अमितगति श्रावकाचार २/१५ । २७ 'सव्व जीवाणं पि यणं, अक्खरस्स अणंत भागो निच्चु ग्याडिओ चिट्ठइ ।
जई पुण सो वि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा ।। ७५ ।।' -नंदी। २८ योगदृष्टि समुच्चय । २६ यशोविजयजी ।
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