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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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से भिन्न नहीं है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि साध्य, साधक और साधनामार्ग में अभेद है। किन्तु इस अभेद का तात्पर्य इतना ही है कि अस्तित्त्व की दृष्टि से साध्य, साधक और साधनामार्ग एक दूसरे से पृथक् नहीं हैं। आत्मा का समत्वरूप स्वभाव ही साध्य है और उस समत्व को पूर्ण रूप से उपलब्ध करने का प्रयत्न करनेवाली आत्मा ही साधन है। उस समत्व की उपलब्धि के सम्बन्ध में जो प्रयत्न और पुरुषार्थ किया जाता है, वह साधनामार्ग है। इस प्रकार साध्य, साधक और साधनामार्ग में एक अभेद है, किन्तु व्यवहार के स्तर पर इन तीनों में भेद भी है। समत्वरूपी स्वभाव में अवस्थिति साध्य है; विभाव से स्वभाव की ओर प्रयत्नशील आत्मा साधक है और विभाव को समाप्त कर स्वभाव को पुनः उपलब्ध कर लेना साधना है। विभाव व स्वभाव दोनों ही आत्मा की पर्यायें हैं। विभाव पर्याय में रहने वाली आत्मा को तब तक साधक कहा जाता है जब तक वह विभाव से स्वभाव में जाने का प्रयत्न करती है। यदि उसमें इस प्रयत्न का अभाव हो जाये, तो वह साधक की कोटि में नहीं आती। यह दो स्थितियों में होता है। इस हेतु प्रयत्न प्रारम्भ न करने पर या समत्व की उपलब्ध कर लेने पर। इसलिये साध्य और साधक में भेद भी है। पुनः विभाव से स्वभाव में आने या तनावों को समाप्त कर समत्व की उपलब्धि के लिये जो प्रयत्न किया जाता है, वह साधनामार्ग है। यदि विभाव से स्वभाव में जाने के लिये कोई प्रयत्न या पुरुषार्थ न हो, तो साधनामार्ग का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। साधक जिस पर चलकर साध्य को उपलब्ध करता है, वही साधनामार्ग है। इस प्रकार साध्य, साधक और साधनामार्ग में निश्चयनय की अपेक्षा से अभेद है, किन्तु व्यवहार की अपेक्षा से इनमें भेद भी है। अब हम जैनदर्शन की दृष्टि से साध्य, साधक और साधनामार्ग के स्वरूप पर किंचित् विस्तार से विचार करेंगे।
३.२ समत्वयोग का साध्य समभाव की उपलब्धि : ____ भारतीय दर्शनों एवं धर्मों में साधना का लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति माना गया है। यद्यपि सभी भारतीय दार्शनिक किसी न किसी रूप में मोक्ष, मुक्ति या निर्वाण की अवधारणा की चर्चा करते
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