________________
जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
१.१.२ समत्वयोग की महत्ता
जैन साधना में समत्वयोग का क्या महत्त्व और स्थान है ? इसका एक सुन्दर चित्रण आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ के २४ वें सर्ग में किया है। वे लिखते हैं कि राग-द्वेष
और मोह के अभाव में समताभाव प्रकट होता है। इस समताभाव के द्वारा ही मोक्ष के कारणभूत ध्यान की सिद्धि होती है। मोहरुपी अग्नि को बुझाने के लिए और संयमरूपी लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए तथा रागरूप वृक्ष को समूलतः काटने के लिये समत्व का आलम्बन आवश्यक है।७. आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार जिस पुरुष का मन चित्त और अचित्त तथा इष्ट और अनिष्ट पदार्थों के द्वारा मोह को प्राप्त नहीं होता है, वह पुरुष साम्य है; योग या समत्वयोग को प्राप्त होता है। “हे आत्मन्! तू कामभोगों से विरक्त होकर शरीर के प्रति भी आसक्ति को छोड़कर समत्व की उपासना कर; क्योंकि यह समत्व ही सर्वज्ञ का रूप व ज्ञानलक्ष्मी को प्रदान करनेवाला है।"२६ उनकी दृष्टि में परमात्मपद की प्राप्ति केवल समत्वयोग से ही सम्भव है। वे लिखते हैं कि संयमी मुनि समभाव या समत्वयोगरूपी सूर्य की किरणों से रागादिरूपी अन्धकार को नष्ट करके अपनी ही आत्मा में परमात्मस्वरूप का अवलोकन करता है, अर्थात् परमात्मा के स्वरूप का दर्शन समत्वयोग के द्वारा ही सम्भव है।३० व्यक्ति समत्वयोग का आलम्बन लेकर ही अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का बोध करता है और जीव तथा कर्म को पृथक् करता है। वस्तुतः जिसका समभावरूपी जल शुद्ध है और ज्ञान
-ज्ञानार्णव सर्ग २४ ।
-वही।
२७ 'मोहवलिमपाकर्तुं स्वीकर्तुं संयमश्रियम् ।
छेत्तुं रागद्रुमोद्यानं समत्वमवलम्ब्यताम् ।। १ ।।' २८ 'चिदचिल्लक्षणैर्भावरिष्टानिष्टतया स्थितैः ।
न मुह्यति मनोयस्य तस्य साम्ये स्थितिर्भवेत्' ।। २ ।। २६ 'विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् । ___ समत्वं भज सर्वज्ञज्ञानलक्ष्मीकुलास्पदम्' ।। ३ ।। ३० 'साम्यसूर्यांशुभिर्भिन्ने रागादितिमिरोत्करे । ___ प्रपश्यति यमी स्वस्मिन्स्वरूपं-परमात्मनः ।। ५ ।।' ३" 'साम्यसीमानमालम्ब्य कृत्वात्मन्यात्मनिश्चयम् ।
पृथक करोति विज्ञानी संश्लिष्टे जीवकर्मणी ।। ६ ।।
-वही ।
-वही।
-वही ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org