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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
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१. अहिंसाणुव्रत : उपासकदशांगसूत्र में इस अणुव्रत का शास्त्रीय नाम 'स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रत' है। गृहस्थ साधक स्थूल (त्रस) जीवों की हिंसा से विरत होता है। श्रावक का यह प्रथम व्रत है। उपासकदशांगसूत्र में आनन्द श्रावक ने “मै यावज्जीवन मन, वचन व कर्म से स्थूल प्राणातिपात नहीं करूंगा
और न दूसरों से कराऊंगा", ऐसी प्रतिज्ञा ग्रहण की थी। श्रावक स्थूल हिंसा का पूर्णतः परित्याग करता है, किन्तु सूक्ष्म हिंसा का
आंशिक रूप से त्याग करता है। श्रावक के अहिंसा व्रत की सुरक्षा के लिए निम्न पांच अतिचार बताये गये हैं :
१. बन्धन; २. वध; ३. छविच्छेद;
४. अतिभार; और ५. अन्नपान निरोध। ६ २. सत्याणुव्रत : यह श्रावक का द्वितीय अणुव्रत है। इसका दूसरा नाम 'स्थूलमृषावादविरमणव्रत' है। श्रावक स्थूल असत्य से विरत होने के हेतु प्रतिज्ञा करता है कि “मैं स्थूलमृषावाद का यावत् जीवन के लिए मन, वचन और काया से परित्याग करता हूँ। न तो मैं स्वयं मृषा (असत्य) भाषण करूंगा और न अन्य से कराऊंगा।” आचार्य हेमचन्द्र ने स्थूल मृषावाद या स्थूल असत्य वचन के पांच प्रकार बताये हैं - वर, कन्या, पशु एवं भूमि सम्बन्धी असत्य भाषण करना, झूठी गवाही देना तथा झूठे दस्तावेज तैयार करना श्रावक के लिए निषिद्ध कर्म हैं। उपासकदशांगसूत्र
और वंदित्तुसूत्र में सत्य अणुव्रत के पांच अतिचार प्रतिपादित किये गये हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार इनके नाम निम्न हैं : १. मिथ्योपदेश; २. असत्य दोषारोपण; ३. कूटलेख क्रिया; ४. न्यासापहार; और ५. मर्मभेद अर्थात् गुप्त बात प्रकट करना।
-योगशास्त्र २।
उपासकदशागसूत्र १/१३ । वही १/४५ । 'कन्या-गो-भूम्यलीकानि, न्यासापहरणं तथा । कूटसाक्ष्यं च पत्रचेति स्थूलासत्यान्यकीर्तयन् ।।५४ ।।' (क) उपासकदशांगसूत्र १/४६ ।। (ख) 'सहसा-रहस्स-दारे मोसुवएस्से अ कूडलेहे अ।
बीअवयस्सइआरे पडिक्कमे राइयं सव्वं ।।१२ ।।' तत्त्वार्थसूत्र ७/२१ ।
-वंदित्तुसूत्र ।
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