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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
योग्य नहीं है।६६
आचारांगसूत्र में अस्तेय महाव्रत का सम्यक् रूप से पालन करने के लिए पांच भावनाओं का विधान मिलता है : १. श्रमण विचारपूर्वक परिमित परिमाण में ही वस्तुओं की
याचना करे; २. याचित आहारादि वस्तुओं का उपभोग आचार्य या गुरू की
अनुमति से ही करे; ३. श्रमण अपने लिए निश्चित परिमाण में ही वस्तुओं की
याचना करे; ४. श्रमण को जब भी कोई आवश्यकता हो, उस वस्तु की
मात्रा का परिमाण निश्चित करके ही याचना करे; और ५. अपने सहयोगी श्रमणों के लिए भी विचारपूर्वक परिमित
परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करे।६७ कुछ आचार्यों ने अस्तेय महाव्रत के पालन के लिए इन पांच बातों को भी आवश्यक माना है :
१. श्रमण को हमेशा निर्दोष स्थान पर ही ठहरना चाहिए; २. स्वामी की स्वीकृति से ही आहार अथवा ठहरने का स्थान
ग्रहण करना चाहिए; ३. ठहरने के लिए जितना स्थान गृहस्थ ने दिया, उतना ही
उपयोग करना चाहिए; ४. गुरू की अनुमति के बाद ही आहार आदि का उपभोग
करना चाहिए; और ५. यदि किसी स्थान पर पूर्व में कोई श्रमण ठहरा हो, तो
उसकी आज्ञा को प्राप्त करके ही ठहरना चाहिए। श्रमण इस तीसरे अस्तेय नामक महाव्रत को अंगीकार कर मोक्ष की उपलब्धि कर सकता है।
१६६ (क) दशवैकालिक सूत्र ६/१४-१५ । (ख) 'आस्तां परधनादित्सां कर्तुं स्वऽनेऽपि धीमताम् ।।
तृण मात्रमपि ग्राह्यं नादत्तं दन्तशुद्धये ।। १८ ।। ' आचारांगसूत्र २/१५/१७६ । १६८ प्रश्नव्याकरणसूत्र ८ ।
-ज्ञानार्णव सर्ग १० ।
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